पिछले दिनों से बिमारी ने लंबी छुट्टी दिला दी। आज वकत काटने के लिए काफी समय से ला के रखी हूई फिल्म "वाटर" देखी, तो बार- बार आंखें नम होने से ओर ह्रदय को आक्रोश से भर जाने से रोक पाना संभव ना हुआ। यह तो बचपन से जवानी तक के सफ़र मे ही ज्ञात हो गया था (यद्यपि मेरे माँ- पिताजी ने कभी इसका अहसास नहीं कराया) की इस समाज मे स्त्रियों ओर पुरुषों के लिए दोहरे मापदंड सदियों से चले आ रहे है। जिन्हें स्त्रियाँ अपनी नियति मानकर जीवन भर पुरी ईमानदारी व निष्ठा से निर्वहन करने का प्रयास करती है। प्रयास मे चुक की सजा भी नियति का हिस्सा है।
दीपा महता ने विधवाओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार का ह्र्दयास्पर्शी चित्रण करने का प्रयास "वाटर" मे किया है। कुछ संवाद ह्रदय को तीर की तरह भेदते है, जैसे- "बाल विधवा का मासूम प्रश्न 'पुरुष विधवाओं के आश्रम कहॉ होते है?" बुद्दी बुआ का लड्डू के लिए तरसना, जहाँ लाचारी व बेबसी को दरसता है, वहीं बाल विधवा का भीख मँगाने वाले प्रसंग पर "डूब मरो" कहना या दीदी का कल्याणी के कमरे का ताला खोल कर उसे भगाने के लिए कहना- सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह को दर्शाता है।
परन्तु बात सिर्फ विधवाओं की ही तो नहीं- यह दोहरे मापदंड तो जीवन के हर कदम, हर स्तर पर दिखायी पड़ते है। हालांकि बहुत से लोगों की जुबान से यह सुनाने को मिल जाएगा की हिंदु धर्म मे सैदेव ऐसी स्तिथी नही थी ओर वे बडे गर्व से वैदिक मंत्रों की रचियाताओं का नाम भी गिनावा देते है। देवियों की महिमा भी सुनायी जाती है। पर यहाँ प्रश्न यह है की वैदिक मंत्रों की रचियता स्त्रियों के नाम उंगलियों पर गिनाने लायक है ओर उन चांद स्त्रियों से हम तत्कालीन समाज की संपूर्ण स्त्री जाती की स्तिथी का आंकलन तो नहीं कर सकते। जिस समाज के सम्मानित वर्ग की बेकसूर अहिल्या पत्थर बाना दी जाती हो, परम पवित्र सीता अग्नी परीछा देने को मजबूर हो, बेबस द्रोपदी सरेआम बेइज्जत हो , उस समाज की आम स्त्रियों की कल्पना स्वाभाविक है। कहीँ ऐसा नहीं लगता की समाज ने उन्हें देवी बनाते बनाते, उनमे इनसान होने के अहसास को ही ख़त्म कर दिया है। फिर सिर्फ हिंदु धर्म ही क्यों - दुनिया का कोई भी धर्म स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का दर्जा नही देता। बल्कि कुछ तो उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लायक ही नही मानते। फिर भी आर्श्चय इस बात का है की स्त्रियाँ ही सबसे अधिक धर्म परायण होती है।
प्रकति ने मात्र शारीरिक सरंचना मे स्त्री व पुरुष मे विभेद किया है। उसके बावजूद स्त्रियों ने जब जब भी उन्हें अवसर मिल हर क्षेत्र मे अपनी योग्यता को सिद्ध किया है- चाहे वेदो की रचना मे गार्गी- मैत्रेयी आदि का योगदान हो, भक्ती आंदोलन मे मीरा की देन हो, एक सुलतान के रूप मे रजिया की भूमिका हो, स्वतंत्रता आंदोलन मे रानी लक्ष्मी बायी, बेगम हजरत आदि महिलाओं का संघर्ष व सहादत हो, या फिर आधुनिका भारत मे नए कीर्तिमान बनाती किरण बेदी, कलपना चावला, सानिया मिर्जा, पीटी उषा, सुशामिता सेन .......................... सबसे बढ कर इंदिरा गांधीजी, जिनका शासन काल सभी पुरूषों के शासन काल पे भारी है।
आज २१विन् सदी मे हालांकि स्त्रियाँ हर क्षेत्र मे अपने आपको साबित कर रही है ओर साथ सामाजिक जागरुकता धीरे धीरे उनके लिए अवसरों के द्वार खोलती जा रही है। आज हमारे देश की सबसे प्राचीन बड़ी व राष्ट्रिय पार्टी की अध्याक्षा एक महिला- सोनियाजी है ओर देश मे पहली बार एक महिला राष्ट्रपति बनने जा रही है। खेल हो, विज्ञानं हो, प्रशासन हो, राजनीति हो, शिक्षा जगत हो - हर जगह महिलाएं सफलता का परचम लहरा रही है। पुरा देश वर्ष २००७ को महिला सशक्तिकरण के रुप मे मना रह है। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न याहा है की घर से बाहर निकल कर सार्वजनिक क्षेत्र् मे कार्य कराने वाली महिलाओं का प्रतिशत क्या है? नारी मुक्ति या स्वतंत्रता की बात करने वाली स्त्रियों को समाज मे सार्वजनिक स्वीकारोक्ति मिल पायी है? आज हर सफल स्त्री क्या समाज के लंछानो व प्रश्नों से अपने आप को बचा पायी है?
हक़ीकत यही है की आज भी इस देश की ८०% आबादी गावों मे उन्हीं पुरानी रुढियों के साथ जीवन बिता रही है। यह सही है की सती प्रथा विरोधी कानून ने स्त्रियों को जिन्दा अग्नी मे जल के मरने से तो बचा लिया, परन्तु रुढियों की अग्नी मे रोज तिल तिल के सुलगने से उन्हें कौनसा कानून बचायेगा? ओर फिर जिस देश मे आज भी नन्हीं बालिकाओं के साथ बलात्कार होते हो, जहाँ बहुएं दहेज़ के लालच मे जिंदा जला दी जाती हो,विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार होता हो, स्त्रियाँ देह व्यापर मे धकेली जाती हो,ओर तो ओर बालिका का जन्म ही अमंगाल्कारी माना जाता हो, २१विन् सदी मे भी बेटी माँ- बाप के लिए पराया धन ओर शादी मे दान कराने की वस्तु हो- वहाँ ये सब प्रतीकात्मक उपल्ब्धिया, क्या गर्व कराने लायक है? यही विचार कराने का सही वक्त है.................. तभी वास्तविक नारी सशक्तिकरण संभव हो पायेगा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
सही कहा आपने समाज बदल रहा है, लेकिन इसकी रफतार उम्मीद से कम है| आज 21वी सदी मे हालांकि महिला खुद को सबित कर रही है। समय लगेगा लेकिन सिथिती सुधरेगी|
आप ठीक कह रहीं हैं। आप इतना अच्छा लिखती हैं आगे भी हिन्दी में क्यों नहीं लिखती।
काफी सुदृढ सोच ! अच्छा लिखा ।
Post a Comment