Saturday, June 16, 2007

भगतसिंह ओर उनके साथियों के लिए गांधीजी के प्रयास



भगत सिंह ओर उनके साथी सुखदेवराजगुर की फंसी की खबर सुनते ही संपूर्ण भारत वर्ष मे विरोध तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। ट्रिब्यून (लाहौर) के अनुसार "आंदोलन जबर्दस्त था। ना सिर्फ पंजाब बल्कि दुसरे प्रांतों मे भी इसमे हजारों लोगों ने भाग लिया। वायसराय ओर ब्रिटिश सरकार को लाखों व्यक्तियों के हस्ताक्क्षर से युक्त पत्र भेजा गया। समाचार पत्र के पृष्ठ रिहायी की मांग से भरे रहते थे। लाखों तार भारत मंत्री व वायसराय के नाम भेजे गए।" इतना ही नहीं ६ मार्च १९३१ को ब्रिटिश पार्लियामेंट मे मेक्तन, किड्ले, ब्राकवे, जावेट आदि कुछ सदस्यों ने भी वायसराय के नाम तार भेजा, जो इस प्रकार था - ' हॉउस आफ कामंस का इन्डिपेंड्स ग्रुप आपसे अनुरोध करता है की लाहोर षडयंत्र के कैदियों को रिहा कर दिया जाये।'

एसे मे आम भारतीय के मन मे यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है की जिस समय सम्पुरण भारत आक्रोश की ज्वाला मे जल रहा था, इन शहीदों के पक्ष मे गांधीजी ने कितना ओर क्या किया? इस संदर्भ मे सामान्यत: दो मत प्रचलित है। प्रथम, मत के अनुसार गांधीजी ने समझौते के अन्दर शर्त के रोप मे भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फंसी रद्द कराने की बात नहीं रखी, पर व्यक्तिगत रूप से उस पर काफी जोर डाला। जैसा की गांधीजी की जीवनी के लेखक श्री तेंदुलकर ने लिखा है- गांधीजी ने इस अवसर पर कहा -'मैंने जहाँ तक भी मुझसे बन पड़ा वायसराय पर इसके लिए जोर डाला, मैंने उस पर तर्कों का सारा जोर लगा दिया'

पं.जवाहरलाल नेहरू के कथनानुसार-"भगत सिंह की सजा रद्द कराने के लिए गांधीजी ने जोरदार पैरवी की। इसे सरकार ने मंजूर नहीं किया। उसका समझोते से कोई संबध नहीं था। ......... मगर उनकी पैरवी बेकार गयी।"

'कंगारेस का इतिहास' नामक पुस्तक मे पट्टाभी सितारैमाया ने भी इस मत का समर्थन करते हुये लिखते है- "वार्ता के दौरान गाँधी इरविन के बीच भगत सिंह ओर उनके साथियों -राजगुरु सुखदेव, की फांसी की सजा को बदलने के विषय मे कयी बार लंबी बातचीत हूई थी।" वे आगे लिखते है- 'अधिकाधिक प्रयत्न कराने पर भी गांधीज इन तीनो युवकों की फांसी की सजा रद्द नहीं करा सके।'

लार्ड इरविन ने भी २० मार्च को चेम्स्फोर्ड क्लब मे अपनी विदायी के भाषण मे गांधीजी के इस कथन का समर्थन किया।

परंतु, इसी संदर्भ मे दुसरे मत के समर्थक- भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी, वंपंती पार्टियां ओर वाम जनवादी इतिहासकार पहले मत को एक सिरे से खारिज करते हुए यह मानते है की गांधीजी ने फंसी की सजा को रद्द कराने मे किंचित मात्र भी कारगार कोशिशें नहीं की गयी थी। यहाँ तक कि उनके कुछ साथियों ने तो गांधीजी को दोषी भी ठहराया है। इस संदर्भ मे दुर्गा भाभी का कथन है- "गांधीजी से मिलाने का मौका तब मिला, जब भगत सिंह को फांसी हूई थी। मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कहूँ कि पोलिटिकल प्रिजनर्स के मसले को भी अपनी वार्ता मे उठाएं। दिल्ली मे डा.अंसारी कि कोठी मे गांधीजी ठहरे हुए थे। सुशीला दीदी ओर मैं गए थे..................... गांधीजी ने समझा कि हम शायद इसलिये आये है कि हमसे फरार लाइफ कि मुसीबत झेली नहीं जाती, हमे मुक्ति दिलाएं। तो मुझे जरा फील भी हुआ। मैंने कहा.................. हम इसलिये आये है कि भगत सिंह, सुखदेव राजगुर को फंसी हो रही है। उन्होने कहा कि वे तो हिंसा मे विश्वास रखते है ओर यह है, वह है, ओर हम लोग चले आये।"

सरकारी दस्तावेज भी दुसरे अत का समर्थन करते हुए गांधीजी के प्रयासों पर प्रश्न चिन्ह लगते प्रतीत होते है। राष्ट्रिय संग्रालय मे ग्रह विभाग के राजनीतिक शाखा के अनुसार गांधीजी ने इरविन से दो दिन १८ फरवरी व १९ मार्च, भगत सिंह पर बातचीत की। इरविन ने अपने रोजनामचे मे लिखा है- "दिल्ली मे जो समझौता हुआ, उससे अलग ओर अंत मे गाँधी ने भगत सिंह का उल्लेख किया। उन्होने फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए पैरवी नहीं की, पर साथ ही वर्त्तमान परिस्तिथियों मे फाँसी स्थगित कराने के विषय मे भी कुछ नही कहा।"

१९ मार्च को अन्तिम बार भगत सिंह पर बातचीत हुई। इरविन ने अपने रोजनामचे मे लिखा है- " जब मिस्टर गाँधी जाने को ही थे, तो उन्होने मुझसे पूछा की उन्होने अखबार मे २३ तारीख को भगत सिंह को फाँसी देने की बात पढी है, क्या वे इस संबंध मे कुछ कह सकते है? उनका कहना थी की यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा, क्योंकि उस दिन करांची मे नए चुने गए अध्यक्ष पहुँचाने वाले थे ओर उस दिन जनता बहुत जोश मे होगी। मैंने उनसे कहा की, मैंने इस मसले मे बहुत संजीदगी से विचार किया, लेकिन मेरा विवेक मुझे अनुमति नहीं देता की मैं सजा को घटा दूँ। मुझे ऐसा लगा की उन्होने मेरे ट्रक को मान लिया ओर उन्होने मुझसे कुछ नही कहा। "



२० मार्च को वायसराय की कौंसिल के ग्रह सदस्य इमरसन से मिले। इमरसन ने अपने रोजनामचे लिखा है- "मि.गाँधी की मसाले मे अधिक दिलचस्पी मालुम नही हूई। मैंने उनसे कहा की यदि फाँसी के फलस्वरूप अव्यवस्था नहीं हूई तो वह बड़ी बात होगी। मैंने उनसे कहा की वे सब कुछ करे ताकी अगले दिनों मे सभाएँ ना हो ओर उग्र व्याख्यानों को रोकें। इस पर उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी ओर कहा जो कुछ भी मुझसे हो सकेगा मई करुंगा।

इन सभी तथ्यों मे सर्वाधिक रोचक है गांधीजी द्वारा २० मार्च (फांसी से तीन दिन पूर्व) ग्रह सदस्य से हूई बातचीत ओर उनके पत्र के उत्तर मे लिखा गया पत्र -
"प्रियवर इमरसन,
अभी जो आपका पत्र मिला उसके लिए धन्यवाद। आप जिस सभा का उल्लेख कर रहे है, इसका मुझे पुरा पता है। पुरी एहतियात ले ली है ओर आशा करता हूँ की कोई गडबडी नहीं होगी। इस उत्तेजना को सभाओं के जरिये निकल दिए जाना ही उचित होगा।"
दोनों मतों का का गंभीरतापूर्वक अध्यन्न कराने पर दोनो मे एक मुख्य बात समान नजर आती है। दोनों ही मत (भारतीय कांग्रेसी नेता व सरकारी दस्तावेज) इस बात पर सहमत है की इरविन ओर गांधीजी के बीच भगत सिंह ओर उनके साथियों को ले कर बातचीत हूई। किन्तु बातचीत का स्वरूप क्या था? इसी के संदर्भ मे दोनो के मध्य प्रमुखत: मतभेद है। इनमे कोई ना कोई कहीँ ना कहीँ झूट जरुर बोल रह है ओर इस झूट का उद्देश्य देश की जनता को धोका देना है। गाँधी, नेहरू, पत्ताभी जैसे नेताओं से ऐसे झूट की उम्मीद नहीं की जा सकती। गांधीजी से तो बिल्कुल भी नहीं। जिन्होंने अपने जीवन के कड़वे से कड़वे सच को अपनी आत्मकथा मे जिस तरह जगजाहिर किया था - वो सार्वजनिक जीवन के किसी भी व्यक्ति के लिए बडे दु:सहस की बात है। साथ ही दुसरी ओर 'बांतो ओर राज करो' की निति पर आधारित झूट व कपट पर निर्मित सरकार है। जिससे ऐसे झूट की अपेचा करना आर्श्चय जनक नहीं है। ऐसा होने की पुरी पुरी संभावना है की स्वाधीनता संद्रम की दोनो धाराओं के बीच खायी को मोती कराने हेतु सरकार ने गांधीजी की भूमिका को दबा दिया हो, ताकि क्रन्तिकारी साम्राज्यवाद से संघर्ष कराने की बजाय गांधीजी से संघर्ष करने लगे। अत: किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचाने से पहले इस पहलू को नजर अंदाज नहीं करना चाहिऐ।

ओर ऐसा भी नहीं था की गांधीजी को भगत सिंह ओर उनके साथियों के लिए कोई दुःख नहीं था। उन्होने कहा था- अस्थायी संधि के लिए मध्यस्थ करने वाले हम सत्य ओर अहिंसा के अपने प्रण व न्याय की सीमाओं को नहीं भूल सकते थे। ............ यदि आपको हिंसा पर ही विश्वास है, तो आपको निश्चय पूर्वक बता सकता हूँ की आप केवल भगत सिंह को ही नही छुडा सकेंगे, बल्कि आपको भगत सिंह जैसे हजारों युवकों का बलिदान करना पड़ेगा। मई वैसा कराने को तैयार नहीं था ओर इसलिये मैंने सत्य ओर अहिंसा का मार्ग ज्यादा बेहतर समझा।'

अत: ऐसे मे यह प्रश्न उठाना भी स्वाभाविक गांधीजी अगर भगतसिंह ओर उनके साथियों को नहीं बचा पाए, तो खुले टूर पर इसके विरोध मे कोई आंदोलन आरम्भ कर, उनकी शहादत की आक्रोश के साथ्स्वधिनता संग्राम की गाडी को आगे क्यों नहीं ले गए?

जैसा की स्राव विदित है की गांधीजीभगत सिंह दोनो की विचारधाराओं व उनके कार्यक्रमों के साथ साथ संघर्ष के तरीकों मे गहरा मतभेद या अंतर था। इस संदर्भ मे दोनों मे समय समय पर द्व्ध व संवाद चलाता रहता था। दोनों ने ही एक दुसरे के तोर तरीकों की खुली तोर पर कड़ी आलोचना की है। जो कभी कभी अत्यंत तीखी हो गयी। दोनों ने ही एक दुसरे के प्रति अपने मनोभावों को जनता से नही छुपाया। दोनों ही अपने अपने आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे। एसे मे गांधीजी यह कदम उठाते तो यह उनका अपने आदर्शों को तिलंगाली व भगत सिंह के विचारों के सम्मुख समर्पण व उनको वैधता देना होता। वो गाँधी जिन्होंने जीवन पर्यंत कठिन से कठिन दौर मेँ अपने आदर्शों- सत्य ओर अहिंसा- को नहीं छोड़ा, यदि भावुकता मे बहकर अपने आदर्शों के साथ सम्झोता कर लेते, तो क्या यह देश आज की भांति उन पर गर्व कर पाटा?अत: गाँधी ने जो किया वो उनके आदर्शों के अनुरुप था, जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराना सर्वथा अनुचित है।

हिंसा अंग्रेज करे या उनका पुत्र दोनों ही उनके लिए निंदनीय था। परंतु, पर इसका अर्थ यह नहीं की हम उनके पुत्र प्रेम प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगा दें।






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