सिले सिले होटों से
कैसे कहूँ की मैं तुम्हे चाहती हूँ।
मुंदी मुंदी आंखों से
कैसे बोलूं
कि तुम कितने अच्छे हो।
बंधे बंधे हाथों से
तुम्हे कैसे बांधू
कि तुम वही हंसी ख्वाब हो,
जो मेरे सपनो मे
हर पूर्णिमा की रात
सफ़ेद घोड़े पर सवार
आकाश से उतरते हो।
रुके रुके पांवों से
तुम्हें कैसे रोकुं
क्यूंकि हवा की तरह
मेरे बगल से रोज बहते हो।
सिर्फ खुला है
मेरे ह्रदय का कपाट
झांक कर देखो
एक मंदिर सा बाना है अन्दर
तुम्हारे लिए.....
सिर्फ तुम्हारे लिए..........
Saturday, August 18, 2007
Friday, August 10, 2007
बेदाग चांद
पूर्णिमा की दहकती रात मे
कभी देखा है प्रिये
तुमने, वो बेदाग़ चांद.............
हो जैसे दुल्हन की कलाई मेँ
हीरों जाड़ा कंगन,
या फिर- बिरहन के माथे पर
कुमकुम की बिखरी बिंदिया,
या फिर मोम की गुड़ियों मे
पिघलता सोना,
या फिर रुपहली मौजों पर
थिरकते नव-नर्तकी के पांव,
या फिर महताब सा आईने मे उभरा
तुम्हारा अक्स,
कभी देखा है प्रिय
तुमने वो बेदाग चांद................
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