Saturday, June 30, 2007
"एक पल"
एक पल हमारे पास है , इसे यूं ना गंवाओ,
प्रिय तुम आ जाओ.........
बारिश की छमछम, पत्तों की सरगम,
सर्द हवा के झोंके, तुम्हें बुला रहे है,
प्रिय तुम आ जाओ.......
जब हम क्रन्दन करते इस धरा पर आये-
वह एक पल था।
ओर जब तितलियों के पीछे भागते गिरते-
फिर उठ कर भागते,
वह भी एक पल था।
चांद पकड़ने की धुन मे जब हम-
तैलया मे उतर जाते,
वह भी एक पल था।
जिंदगी के सफ़र मे, किसी राह पर-
जब हम पहली बार मिले,
वह भी एक पल था।
दिल ने सोचा था कि तुम सिर्फ राही नहीं-
हम राही हो सकते हो,
वह भी एक पल था।
पलकें बिछाए इंतज़ार मे तुम्हारे-
मैं बैठी हूँ,
यह भी एक पल है।
ओर जब मौत के साए हमे-
अपनी गोद मे समेट लेंगे,
वह भी एक पल होगा।
तनहाई को ना अपना साथी बनाओ-
एक पल जीवन का,
जो हमारे पास है, उसे यूं ना गंवाओ-
प्रिय तुम आ जाओ......................
Friday, June 29, 2007
नियति ?
पिछले दिनों से बिमारी ने लंबी छुट्टी दिला दी। आज वकत काटने के लिए काफी समय से ला के रखी हूई फिल्म "वाटर" देखी, तो बार- बार आंखें नम होने से ओर ह्रदय को आक्रोश से भर जाने से रोक पाना संभव ना हुआ। यह तो बचपन से जवानी तक के सफ़र मे ही ज्ञात हो गया था (यद्यपि मेरे माँ- पिताजी ने कभी इसका अहसास नहीं कराया) की इस समाज मे स्त्रियों ओर पुरुषों के लिए दोहरे मापदंड सदियों से चले आ रहे है। जिन्हें स्त्रियाँ अपनी नियति मानकर जीवन भर पुरी ईमानदारी व निष्ठा से निर्वहन करने का प्रयास करती है। प्रयास मे चुक की सजा भी नियति का हिस्सा है।
दीपा महता ने विधवाओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार का ह्र्दयास्पर्शी चित्रण करने का प्रयास "वाटर" मे किया है। कुछ संवाद ह्रदय को तीर की तरह भेदते है, जैसे- "बाल विधवा का मासूम प्रश्न 'पुरुष विधवाओं के आश्रम कहॉ होते है?" बुद्दी बुआ का लड्डू के लिए तरसना, जहाँ लाचारी व बेबसी को दरसता है, वहीं बाल विधवा का भीख मँगाने वाले प्रसंग पर "डूब मरो" कहना या दीदी का कल्याणी के कमरे का ताला खोल कर उसे भगाने के लिए कहना- सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह को दर्शाता है।
परन्तु बात सिर्फ विधवाओं की ही तो नहीं- यह दोहरे मापदंड तो जीवन के हर कदम, हर स्तर पर दिखायी पड़ते है। हालांकि बहुत से लोगों की जुबान से यह सुनाने को मिल जाएगा की हिंदु धर्म मे सैदेव ऐसी स्तिथी नही थी ओर वे बडे गर्व से वैदिक मंत्रों की रचियाताओं का नाम भी गिनावा देते है। देवियों की महिमा भी सुनायी जाती है। पर यहाँ प्रश्न यह है की वैदिक मंत्रों की रचियता स्त्रियों के नाम उंगलियों पर गिनाने लायक है ओर उन चांद स्त्रियों से हम तत्कालीन समाज की संपूर्ण स्त्री जाती की स्तिथी का आंकलन तो नहीं कर सकते। जिस समाज के सम्मानित वर्ग की बेकसूर अहिल्या पत्थर बाना दी जाती हो, परम पवित्र सीता अग्नी परीछा देने को मजबूर हो, बेबस द्रोपदी सरेआम बेइज्जत हो , उस समाज की आम स्त्रियों की कल्पना स्वाभाविक है। कहीँ ऐसा नहीं लगता की समाज ने उन्हें देवी बनाते बनाते, उनमे इनसान होने के अहसास को ही ख़त्म कर दिया है। फिर सिर्फ हिंदु धर्म ही क्यों - दुनिया का कोई भी धर्म स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का दर्जा नही देता। बल्कि कुछ तो उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लायक ही नही मानते। फिर भी आर्श्चय इस बात का है की स्त्रियाँ ही सबसे अधिक धर्म परायण होती है।
प्रकति ने मात्र शारीरिक सरंचना मे स्त्री व पुरुष मे विभेद किया है। उसके बावजूद स्त्रियों ने जब जब भी उन्हें अवसर मिल हर क्षेत्र मे अपनी योग्यता को सिद्ध किया है- चाहे वेदो की रचना मे गार्गी- मैत्रेयी आदि का योगदान हो, भक्ती आंदोलन मे मीरा की देन हो, एक सुलतान के रूप मे रजिया की भूमिका हो, स्वतंत्रता आंदोलन मे रानी लक्ष्मी बायी, बेगम हजरत आदि महिलाओं का संघर्ष व सहादत हो, या फिर आधुनिका भारत मे नए कीर्तिमान बनाती किरण बेदी, कलपना चावला, सानिया मिर्जा, पीटी उषा, सुशामिता सेन .......................... सबसे बढ कर इंदिरा गांधीजी, जिनका शासन काल सभी पुरूषों के शासन काल पे भारी है।
आज २१विन् सदी मे हालांकि स्त्रियाँ हर क्षेत्र मे अपने आपको साबित कर रही है ओर साथ सामाजिक जागरुकता धीरे धीरे उनके लिए अवसरों के द्वार खोलती जा रही है। आज हमारे देश की सबसे प्राचीन बड़ी व राष्ट्रिय पार्टी की अध्याक्षा एक महिला- सोनियाजी है ओर देश मे पहली बार एक महिला राष्ट्रपति बनने जा रही है। खेल हो, विज्ञानं हो, प्रशासन हो, राजनीति हो, शिक्षा जगत हो - हर जगह महिलाएं सफलता का परचम लहरा रही है। पुरा देश वर्ष २००७ को महिला सशक्तिकरण के रुप मे मना रह है। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न याहा है की घर से बाहर निकल कर सार्वजनिक क्षेत्र् मे कार्य कराने वाली महिलाओं का प्रतिशत क्या है? नारी मुक्ति या स्वतंत्रता की बात करने वाली स्त्रियों को समाज मे सार्वजनिक स्वीकारोक्ति मिल पायी है? आज हर सफल स्त्री क्या समाज के लंछानो व प्रश्नों से अपने आप को बचा पायी है?
हक़ीकत यही है की आज भी इस देश की ८०% आबादी गावों मे उन्हीं पुरानी रुढियों के साथ जीवन बिता रही है। यह सही है की सती प्रथा विरोधी कानून ने स्त्रियों को जिन्दा अग्नी मे जल के मरने से तो बचा लिया, परन्तु रुढियों की अग्नी मे रोज तिल तिल के सुलगने से उन्हें कौनसा कानून बचायेगा? ओर फिर जिस देश मे आज भी नन्हीं बालिकाओं के साथ बलात्कार होते हो, जहाँ बहुएं दहेज़ के लालच मे जिंदा जला दी जाती हो,विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार होता हो, स्त्रियाँ देह व्यापर मे धकेली जाती हो,ओर तो ओर बालिका का जन्म ही अमंगाल्कारी माना जाता हो, २१विन् सदी मे भी बेटी माँ- बाप के लिए पराया धन ओर शादी मे दान कराने की वस्तु हो- वहाँ ये सब प्रतीकात्मक उपल्ब्धिया, क्या गर्व कराने लायक है? यही विचार कराने का सही वक्त है.................. तभी वास्तविक नारी सशक्तिकरण संभव हो पायेगा।
दीपा महता ने विधवाओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार का ह्र्दयास्पर्शी चित्रण करने का प्रयास "वाटर" मे किया है। कुछ संवाद ह्रदय को तीर की तरह भेदते है, जैसे- "बाल विधवा का मासूम प्रश्न 'पुरुष विधवाओं के आश्रम कहॉ होते है?" बुद्दी बुआ का लड्डू के लिए तरसना, जहाँ लाचारी व बेबसी को दरसता है, वहीं बाल विधवा का भीख मँगाने वाले प्रसंग पर "डूब मरो" कहना या दीदी का कल्याणी के कमरे का ताला खोल कर उसे भगाने के लिए कहना- सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह को दर्शाता है।
परन्तु बात सिर्फ विधवाओं की ही तो नहीं- यह दोहरे मापदंड तो जीवन के हर कदम, हर स्तर पर दिखायी पड़ते है। हालांकि बहुत से लोगों की जुबान से यह सुनाने को मिल जाएगा की हिंदु धर्म मे सैदेव ऐसी स्तिथी नही थी ओर वे बडे गर्व से वैदिक मंत्रों की रचियाताओं का नाम भी गिनावा देते है। देवियों की महिमा भी सुनायी जाती है। पर यहाँ प्रश्न यह है की वैदिक मंत्रों की रचियता स्त्रियों के नाम उंगलियों पर गिनाने लायक है ओर उन चांद स्त्रियों से हम तत्कालीन समाज की संपूर्ण स्त्री जाती की स्तिथी का आंकलन तो नहीं कर सकते। जिस समाज के सम्मानित वर्ग की बेकसूर अहिल्या पत्थर बाना दी जाती हो, परम पवित्र सीता अग्नी परीछा देने को मजबूर हो, बेबस द्रोपदी सरेआम बेइज्जत हो , उस समाज की आम स्त्रियों की कल्पना स्वाभाविक है। कहीँ ऐसा नहीं लगता की समाज ने उन्हें देवी बनाते बनाते, उनमे इनसान होने के अहसास को ही ख़त्म कर दिया है। फिर सिर्फ हिंदु धर्म ही क्यों - दुनिया का कोई भी धर्म स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का दर्जा नही देता। बल्कि कुछ तो उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लायक ही नही मानते। फिर भी आर्श्चय इस बात का है की स्त्रियाँ ही सबसे अधिक धर्म परायण होती है।
प्रकति ने मात्र शारीरिक सरंचना मे स्त्री व पुरुष मे विभेद किया है। उसके बावजूद स्त्रियों ने जब जब भी उन्हें अवसर मिल हर क्षेत्र मे अपनी योग्यता को सिद्ध किया है- चाहे वेदो की रचना मे गार्गी- मैत्रेयी आदि का योगदान हो, भक्ती आंदोलन मे मीरा की देन हो, एक सुलतान के रूप मे रजिया की भूमिका हो, स्वतंत्रता आंदोलन मे रानी लक्ष्मी बायी, बेगम हजरत आदि महिलाओं का संघर्ष व सहादत हो, या फिर आधुनिका भारत मे नए कीर्तिमान बनाती किरण बेदी, कलपना चावला, सानिया मिर्जा, पीटी उषा, सुशामिता सेन .......................... सबसे बढ कर इंदिरा गांधीजी, जिनका शासन काल सभी पुरूषों के शासन काल पे भारी है।
आज २१विन् सदी मे हालांकि स्त्रियाँ हर क्षेत्र मे अपने आपको साबित कर रही है ओर साथ सामाजिक जागरुकता धीरे धीरे उनके लिए अवसरों के द्वार खोलती जा रही है। आज हमारे देश की सबसे प्राचीन बड़ी व राष्ट्रिय पार्टी की अध्याक्षा एक महिला- सोनियाजी है ओर देश मे पहली बार एक महिला राष्ट्रपति बनने जा रही है। खेल हो, विज्ञानं हो, प्रशासन हो, राजनीति हो, शिक्षा जगत हो - हर जगह महिलाएं सफलता का परचम लहरा रही है। पुरा देश वर्ष २००७ को महिला सशक्तिकरण के रुप मे मना रह है। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न याहा है की घर से बाहर निकल कर सार्वजनिक क्षेत्र् मे कार्य कराने वाली महिलाओं का प्रतिशत क्या है? नारी मुक्ति या स्वतंत्रता की बात करने वाली स्त्रियों को समाज मे सार्वजनिक स्वीकारोक्ति मिल पायी है? आज हर सफल स्त्री क्या समाज के लंछानो व प्रश्नों से अपने आप को बचा पायी है?
हक़ीकत यही है की आज भी इस देश की ८०% आबादी गावों मे उन्हीं पुरानी रुढियों के साथ जीवन बिता रही है। यह सही है की सती प्रथा विरोधी कानून ने स्त्रियों को जिन्दा अग्नी मे जल के मरने से तो बचा लिया, परन्तु रुढियों की अग्नी मे रोज तिल तिल के सुलगने से उन्हें कौनसा कानून बचायेगा? ओर फिर जिस देश मे आज भी नन्हीं बालिकाओं के साथ बलात्कार होते हो, जहाँ बहुएं दहेज़ के लालच मे जिंदा जला दी जाती हो,विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार होता हो, स्त्रियाँ देह व्यापर मे धकेली जाती हो,ओर तो ओर बालिका का जन्म ही अमंगाल्कारी माना जाता हो, २१विन् सदी मे भी बेटी माँ- बाप के लिए पराया धन ओर शादी मे दान कराने की वस्तु हो- वहाँ ये सब प्रतीकात्मक उपल्ब्धिया, क्या गर्व कराने लायक है? यही विचार कराने का सही वक्त है.................. तभी वास्तविक नारी सशक्तिकरण संभव हो पायेगा।
Thursday, June 28, 2007
If oneday ,,.......
If oneday ,,.......
if oneday u feel like crying...............................
call me .................
i don't promise u that.................................
i will make u laugh .......................
but i can cry with u,
If one day u want to run away .....................
don't be afraid to call me .......................
I dont promise to ask you to stop..........
but i can run with u.......................
If oneday you don't want to listen to anybody..................
Call me and ............
I promise to be very quite...............
but.............
if one you call and there is no answer..................
come fast to see me..................
perhaps i need u...........?
if oneday u feel like crying...............................
call me .................
i don't promise u that.................................
i will make u laugh .......................
but i can cry with u,
If one day u want to run away .....................
don't be afraid to call me .......................
I dont promise to ask you to stop..........
but i can run with u.......................
If oneday you don't want to listen to anybody..................
Call me and ............
I promise to be very quite...............
but.............
if one you call and there is no answer..................
come fast to see me..................
perhaps i need u...........?
Tuesday, June 19, 2007
Monday, June 18, 2007
Film Review – Jhum Bara Bar Jhum
Jhum Bar Bar Jhum is a movie with no story line, but lots of music-dance-masti and comedy. Story is you can say VAHI GHISA PITI love story line- a boy(Abhishek) and a girl (Prty Jinta) meets with fighting mode and lying each other that they are engaged and they are here for receive their fiancée. After that story goes on with their false love stories which they tell to each other in funny mode. During that they realize they fall in love with each other and now story goes on how they will get their love.
With long dance number and lots of music, movie has dramatic end. First part of movie seems some time unnecessarily lengthy which can be edit, but presence of bigB refresh the movie time by time. In love seen abhishek and lara looks comfortable & natural but prity looks little conscious. NOK JHOK of Abhishek n Prity make u laughs a lot.
Why this movie should watch? Good question… if you like music , dance, masti, comedy n last but not list the Big B, than can go and watch this once. But don’t apply your mind.
Saturday, June 16, 2007
भगतसिंह ओर उनके साथियों के लिए गांधीजी के प्रयास
भगत सिंह ओर उनके साथी सुखदेव व राजगुरु की फंसी की खबर सुनते ही संपूर्ण भारत वर्ष मे विरोध तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। ट्रिब्यून (लाहौर) के अनुसार "आंदोलन जबर्दस्त था। ना सिर्फ पंजाब बल्कि दुसरे प्रांतों मे भी इसमे हजारों लोगों ने भाग लिया। वायसराय ओर ब्रिटिश सरकार को लाखों व्यक्तियों के हस्ताक्क्षर से युक्त पत्र भेजा गया। समाचार पत्र के पृष्ठ रिहायी की मांग से भरे रहते थे। लाखों तार भारत मंत्री व वायसराय के नाम भेजे गए।" इतना ही नहीं ६ मार्च १९३१ को ब्रिटिश पार्लियामेंट मे मेक्तन, किड्ले, ब्राकवे, जावेट आदि कुछ सदस्यों ने भी वायसराय के नाम तार भेजा, जो इस प्रकार था - ' हॉउस आफ कामंस का इन्डिपेंड्स ग्रुप आपसे अनुरोध करता है की लाहोर षडयंत्र के कैदियों को रिहा कर दिया जाये।'
एसे मे आम भारतीय के मन मे यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है की जिस समय सम्पुरण भारत आक्रोश की ज्वाला मे जल रहा था, इन शहीदों के पक्ष मे गांधीजी ने कितना ओर क्या किया? इस संदर्भ मे सामान्यत: दो मत प्रचलित है। प्रथम, मत के अनुसार गांधीजी ने समझौते के अन्दर शर्त के रोप मे भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फंसी रद्द कराने की बात नहीं रखी, पर व्यक्तिगत रूप से उस पर काफी जोर डाला। जैसा की गांधीजी की जीवनी के लेखक श्री तेंदुलकर ने लिखा है- गांधीजी ने इस अवसर पर कहा -'मैंने जहाँ तक भी मुझसे बन पड़ा वायसराय पर इसके लिए जोर डाला, मैंने उस पर तर्कों का सारा जोर लगा दिया'
पं.जवाहरलाल नेहरू के कथनानुसार-"भगत सिंह की सजा रद्द कराने के लिए गांधीजी ने जोरदार पैरवी की। इसे सरकार ने मंजूर नहीं किया। उसका समझोते से कोई संबध नहीं था। ......... मगर उनकी पैरवी बेकार गयी।"
'कंगारेस का इतिहास' नामक पुस्तक मे पट्टाभी सितारैमाया ने भी इस मत का समर्थन करते हुये लिखते है- "वार्ता के दौरान गाँधी इरविन के बीच भगत सिंह ओर उनके साथियों -राजगुरु व सुखदेव, की फांसी की सजा को बदलने के विषय मे कयी बार लंबी बातचीत हूई थी।" वे आगे लिखते है- 'अधिकाधिक प्रयत्न कराने पर भी गांधीजी इन तीनो युवकों की फांसी की सजा रद्द नहीं करा सके।'
लार्ड इरविन ने भी २० मार्च को चेम्स्फोर्ड क्लब मे अपनी विदायी के भाषण मे गांधीजी के इस कथन का समर्थन किया।
परंतु, इसी संदर्भ मे दुसरे मत के समर्थक- भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी, वंपंती पार्टियां ओर वाम जनवादी इतिहासकार पहले मत को एक सिरे से खारिज करते हुए यह मानते है की गांधीजी ने फंसी की सजा को रद्द कराने मे किंचित मात्र भी कारगार कोशिशें नहीं की गयी थी। यहाँ तक कि उनके कुछ साथियों ने तो गांधीजी को दोषी भी ठहराया है। इस संदर्भ मे दुर्गा भाभी का कथन है- "गांधीजी से मिलाने का मौका तब मिला, जब भगत सिंह को फांसी हूई थी। मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कहूँ कि पोलिटिकल प्रिजनर्स के मसले को भी अपनी वार्ता मे उठाएं। दिल्ली मे डा.अंसारी कि कोठी मे गांधीजी ठहरे हुए थे। सुशीला दीदी ओर मैं गए थे..................... गांधीजी ने समझा कि हम शायद इसलिये आये है कि हमसे फरार लाइफ कि मुसीबत झेली नहीं जाती, हमे मुक्ति दिलाएं। तो मुझे जरा फील भी हुआ। मैंने कहा.................. हम इसलिये आये है कि भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फंसी हो रही है। उन्होने कहा कि वे तो हिंसा मे विश्वास रखते है ओर यह है, वह है, ओर हम लोग चले आये।"
सरकारी दस्तावेज भी दुसरे अत का समर्थन करते हुए गांधीजी के प्रयासों पर प्रश्न चिन्ह लगते प्रतीत होते है। राष्ट्रिय संग्रालय मे ग्रह विभाग के राजनीतिक शाखा के अनुसार गांधीजी ने इरविन से दो दिन १८ फरवरी व १९ मार्च, भगत सिंह पर बातचीत की। इरविन ने अपने रोजनामचे मे लिखा है- "दिल्ली मे जो समझौता हुआ, उससे अलग ओर अंत मे गाँधी ने भगत सिंह का उल्लेख किया। उन्होने फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए पैरवी नहीं की, पर साथ ही वर्त्तमान परिस्तिथियों मे फाँसी स्थगित कराने के विषय मे भी कुछ नही कहा।"
१९ मार्च को अन्तिम बार भगत सिंह पर बातचीत हुई। इरविन ने अपने रोजनामचे मे लिखा है- " जब मिस्टर गाँधी जाने को ही थे, तो उन्होने मुझसे पूछा की उन्होने अखबार मे २३ तारीख को भगत सिंह को फाँसी देने की बात पढी है, क्या वे इस संबंध मे कुछ कह सकते है? उनका कहना थी की यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा, क्योंकि उस दिन करांची मे नए चुने गए अध्यक्ष पहुँचाने वाले थे ओर उस दिन जनता बहुत जोश मे होगी। मैंने उनसे कहा की, मैंने इस मसले मे बहुत संजीदगी से विचार किया, लेकिन मेरा विवेक मुझे अनुमति नहीं देता की मैं सजा को घटा दूँ। मुझे ऐसा लगा की उन्होने मेरे ट्रक को मान लिया ओर उन्होने मुझसे कुछ नही कहा। "
२० मार्च को वायसराय की कौंसिल के ग्रह सदस्य इमरसन से मिले। इमरसन ने अपने रोजनामचे लिखा है- "मि.गाँधी की मसाले मे अधिक दिलचस्पी मालुम नही हूई। मैंने उनसे कहा की यदि फाँसी के फलस्वरूप अव्यवस्था नहीं हूई तो वह बड़ी बात होगी। मैंने उनसे कहा की वे सब कुछ करे ताकी अगले दिनों मे सभाएँ ना हो ओर उग्र व्याख्यानों को रोकें। इस पर उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी ओर कहा जो कुछ भी मुझसे हो सकेगा मई करुंगा।
इन सभी तथ्यों मे सर्वाधिक रोचक है गांधीजी द्वारा २० मार्च (फांसी से तीन दिन पूर्व) ग्रह सदस्य से हूई बातचीत ओर उनके पत्र के उत्तर मे लिखा गया पत्र -
"प्रियवर इमरसन,
अभी जो आपका पत्र मिला उसके लिए धन्यवाद। आप जिस सभा का उल्लेख कर रहे है, इसका मुझे पुरा पता है। पुरी एहतियात ले ली है ओर आशा करता हूँ की कोई गडबडी नहीं होगी। इस उत्तेजना को सभाओं के जरिये निकल दिए जाना ही उचित होगा।"
दोनों मतों का का गंभीरतापूर्वक अध्यन्न कराने पर दोनो मे एक मुख्य बात समान नजर आती है। दोनों ही मत (भारतीय कांग्रेसी नेता व सरकारी दस्तावेज) इस बात पर सहमत है की इरविन ओर गांधीजी के बीच भगत सिंह ओर उनके साथियों को ले कर बातचीत हूई। किन्तु बातचीत का स्वरूप क्या था? इसी के संदर्भ मे दोनो के मध्य प्रमुखत: मतभेद है। इनमे कोई ना कोई कहीँ ना कहीँ झूट जरुर बोल रह है ओर इस झूट का उद्देश्य देश की जनता को धोका देना है। गाँधी, नेहरू, पत्ताभी जैसे नेताओं से ऐसे झूट की उम्मीद नहीं की जा सकती। गांधीजी से तो बिल्कुल भी नहीं। जिन्होंने अपने जीवन के कड़वे से कड़वे सच को अपनी आत्मकथा मे जिस तरह जगजाहिर किया था - वो सार्वजनिक जीवन के किसी भी व्यक्ति के लिए बडे दु:सहस की बात है। साथ ही दुसरी ओर 'बांतो ओर राज करो' की निति पर आधारित झूट व कपट पर निर्मित सरकार है। जिससे ऐसे झूट की अपेचा करना आर्श्चय जनक नहीं है। ऐसा होने की पुरी पुरी संभावना है की स्वाधीनता संद्रम की दोनो धाराओं के बीच खायी को मोती कराने हेतु सरकार ने गांधीजी की भूमिका को दबा दिया हो, ताकि क्रन्तिकारी साम्राज्यवाद से संघर्ष कराने की बजाय गांधीजी से संघर्ष करने लगे। अत: किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचाने से पहले इस पहलू को नजर अंदाज नहीं करना चाहिऐ।
ओर ऐसा भी नहीं था की गांधीजी को भगत सिंह ओर उनके साथियों के लिए कोई दुःख नहीं था। उन्होने कहा था- अस्थायी संधि के लिए मध्यस्थ करने वाले हम सत्य ओर अहिंसा के अपने प्रण व न्याय की सीमाओं को नहीं भूल सकते थे। ............ यदि आपको हिंसा पर ही विश्वास है, तो आपको निश्चय पूर्वक बता सकता हूँ की आप केवल भगत सिंह को ही नही छुडा सकेंगे, बल्कि आपको भगत सिंह जैसे हजारों युवकों का बलिदान करना पड़ेगा। मई वैसा कराने को तैयार नहीं था ओर इसलिये मैंने सत्य ओर अहिंसा का मार्ग ज्यादा बेहतर समझा।'
अत: ऐसे मे यह प्रश्न उठाना भी स्वाभाविक है गांधीजी अगर भगतसिंह ओर उनके साथियों को नहीं बचा पाए, तो खुले टूर पर इसके विरोध मे कोई आंदोलन आरम्भ कर, उनकी शहादत की आक्रोश के साथ्स्वधिनता संग्राम की गाडी को आगे क्यों नहीं ले गए?
जैसा की स्राव विदित है की गांधीजी व भगत सिंह दोनो की विचारधाराओं व उनके कार्यक्रमों के साथ साथ संघर्ष के तरीकों मे गहरा मतभेद या अंतर था। इस संदर्भ मे दोनों मे समय समय पर द्व्ध व संवाद चलाता रहता था। दोनों ने ही एक दुसरे के तोर तरीकों की खुली तोर पर कड़ी आलोचना की है। जो कभी कभी अत्यंत तीखी हो गयी। दोनों ने ही एक दुसरे के प्रति अपने मनोभावों को जनता से नही छुपाया। दोनों ही अपने अपने आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे। एसे मे गांधीजी यह कदम उठाते तो यह उनका अपने आदर्शों को तिलंगाली व भगत सिंह के विचारों के सम्मुख समर्पण व उनको वैधता देना होता। वो गाँधी जिन्होंने जीवन पर्यंत कठिन से कठिन दौर मेँ अपने आदर्शों- सत्य ओर अहिंसा- को नहीं छोड़ा, यदि भावुकता मे बहकर अपने आदर्शों के साथ सम्झोता कर लेते, तो क्या यह देश आज की भांति उन पर गर्व कर पाटा?अत: गाँधी ने जो किया वो उनके आदर्शों के अनुरुप था, जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराना सर्वथा अनुचित है।
हिंसा अंग्रेज करे या उनका पुत्र दोनों ही उनके लिए निंदनीय था। परंतु, पर इसका अर्थ यह नहीं की हम उनके पुत्र प्रेम प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगा दें।
Monday, June 11, 2007
एक झौंका
हवा का एक झौंका सा था-
दो पल मे बस गुजर गया,
एक पल हवा महक गयी-
एक पल चमन भी खिल गया,
हवा का एक जौका सा था-
कुछ ले गया कुछ दे गया...:)
दो पल मे बस गुजर गया,
एक पल हवा महक गयी-
एक पल चमन भी खिल गया,
हवा का एक जौका सा था-
कुछ ले गया कुछ दे गया...:)
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