Saturday, March 15, 2008

संस्मरण

"रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम" गाने की आवाज जैसे ही कानों मे पड़ी, मैं जूरी से बोली, "लो डियर बज गए पांच! चल उठ, तैयार हो कर छ: बजे प्रार्थना स्थल पर पहुँचना है।


तैयार हो तम्बू मेँ सामान पैक करते समय विचारों की लय मे कब बह निकली पता ही नहीं चला........"दांडी यात्रा की ७५ वी वर्षगांठ पर उसी समय, उसी स्थान पर ७८ यात्रियों के साथ पुन: दांडी यात्रा आयोजित की जा रही है। ७८ यात्रियों के अलावा भी सेवा दल, स्वयं सेवी संस्थाओं से जुड़े लोग, बहुत से मिडिया इत्यादि लोगों का झुंड का झुंड चल रहा है। शहरों व गावों मे लोगों द्वारा स्वागत देखते ही बनता है।

पर इस दांडी यात्रा और गाँधी की दांडी यात्रा मेँ कुछ तो फर्क है? है ना, उस समय हर व्यक्ति एक ही उद्देश्य से चल रहा था, ब्रिटिश साम्राज्य की तानाशाही का अंत। परन्तु, यहाँ कोई इस एतिहासिक यात्रा का हिस्सा बनाना चाहता है, तो कोई एडवंचर करना चाहता है। कुछ तो ऐसे भी जो किसी राजनीतिक कारण से या सरकारी ड्यूटी की वजह से चल रहे है। ................

"क्या सोच रही है? प्रार्थना की लाइन लग गई है।चल, प्रार्थना नहीं करवानी है तुझे?" जूरी की आवाज ने मेरी सोच की लय कों भंग कर दिया।

प्रार्थना........ और फ़िर से पदयात्रा शुरू..... । रास्ते मे चलते हुए एक न्यूज चैनल के रिपोर्टर मुलाक़ात हो गई। बातचीत मेँ सुबह सुबह हमें रघुपति राघव के आलार्म से जगाने वाले शख्स की चर्चा चल पड़ी। "सच मेँ कितने मन से सारा दिन लोगों की सेवा करता है। " मेरी बात सुनकर ने उस व्यक्ति से मिलने और उसका इंटरव्यू लेने की इच्छा जाहिर की। मुझे भी लगा कि उस व्यक्ति कि निस्वार्थ सेवा सब के लिए प्रेरणा बन सकती है।

लैंच ब्रेक के स्थान पर पहुँचने के बाद मैं उस व्यक्ति कों ढुंढने निकल पड़ी। हर कोई भरी दोपहरी मेँ सुस्ता कर अपनी थकान मिटा रहा था। तभी वो मुझे किसी के पाँव दबाता दिखाई पड़ा। मैं उअसकी और बदी।

"भइया जी, चलो टी वी वाले आपका इंटरव्यू लेना चाहते है। " मैंने उसे कहा। वो चुपचाप मेरे साथ चल पड़ा। "भाई रिपोर्टर महोदय कहाँ है? " न्यूज चैनल कि वैन पर पहुँच कर मैंने ड्राइवर से पूछा। " यंहीं पास मेँ ही गएँ है, आते ही होंगे" ड्राइवर ने जवाब दिया। "अब इसे लायी हूँ तो बेचारे का इंटरव्यू करवा ही दिया जाए।" यह सोचकर मैं वहां खड़ी हो गई। थोड़ा वक्त बिताने पर वो मुझसे बोला, "मैडम मैं चलता हूँ, मेरा वक्त बरबाद हो रहा है।" मुझे बड़ा गुस्सा आया। अरे भई, यहाँ सुबह से लोगों मेँ टी वी चैनल मेँ शकल दिखाने कि होड़ लगी रहती है। इसको चला कर मौका दिला रही हूँ , वो भी भरी दोपहरी मी इसके साथ खडे रहकर, तो इसको कदर ही नहीं है। मैंने पूछ ही लिया, "क्या भैया ऐसा कोनसा महत्वपूर्ण काम चूक रहा है?" वो बोला, " मैडम इतनी देर मेँ कई लोगों कि सेवा कर लूँगा। आप इन्हें वहीं ले आना। मैं थके मांदे लोगों के पैर भी दबाता रहूंगा और इन्हें जो पूछना होगा वो पूछ लेंगें। "

जैसे ही वो चलने कों पलता, मैंने उसे टोका, "क्या नाम है आपका?" वो ठिठक कर धीरे से बोला 'राजू'। "क्या करते हो?" मेरा अगला सवाल था। "मैडम, बेटे के साथ गांवों मेँ घूमकर प्रेशर कुकर ठीक करने का काम करता हूँ। किसी तरह परिवार पाल लेते है।" उसका जवाब था। अब मेरे आश्चर्य कि सीमा नहीं थी। मुश्किल से रोटी रोजी का जुगाड़ कराने वाला यह व्यक्ति यहाँ दांडी यात्रा मेँ किस उदेश्य से है? इसे पार्टी मेँ पड़ नहीं चाहिए, चुनाव लड़ने कि तो बेचारा कल्पना भी नहीं कर सकता, ड्यूटी किसी ने लगाई नहीं और अडवंचरस तो इश्वर ने इसकी जिंदगी वैसे ही बना रखी है। फ़िर किस लिए है यहाँ? और फ़िर ये सेवा का जूनून!! क्या वजह हो सकती? "रोटी रोजी छोड़ कर दांडी मेँ क्या कर रहे हो?" मैंने उससे पूछा। " मैडम, मैने सुना था कि देश की आजादी के लिए गांधी जी ने दांडी यात्रा की थी। आज फ़िर आप लोग उसी आजादी कों बचाने और मजबूत करने कों चल रहे है। मैं उस यात्रा के समय तो नहीं था, पर आज तो हूँ। मैंने सोचा जब आप सब इस महान काम के लिए घर बार छोड़ कर चल रहे है, तो आप लोगों कि सेवा करके थोड़ा पुन्य मैं भी कम लूँ।" सपाट और सरल शब्दों मेँ जवाब दे कर 'रघुपति - राघव' गातेफ़िर निकल हुआ पड़ा। हम मेँ से ही किसी 'महान दांडी यात्री' सेवा के लिए........ ।

Wednesday, March 12, 2008

Friday, March 7, 2008

One More Women's Day

So we are again going to celebrate one more women's day. The very words put in my mind the pictures of long processions carrying verious slogans and soughting loudly for- Women's rights, Women's welfare, Women's respect and raising their voices againest Women's exploitation, torture of sufferings. The voice will be raised all about that in conferences and other progarammes made by many women's clubs or women welfare society or political parties etc. They will again talk about the duel rules and unjustice made by the society from thousands of years, and will blame either men or the society or even woman herself for all this. All thease things also done by them whole the year symbolicaly. But the question is that one day celebration or the symbolic agitations through the whole year, is enough for the struggle of equality? What should be more than that?

It is not becouse i want to minimize or underestimate their endeavours in this field. They do their best and they must be appreciated and thanked for all their efforts. But what i think is that an ordinary woman, or a rustic woman living in remote areas of our country can't be benefited by such clubs or societies or activities of political parties. Our orthodox women not even like the steps of tham. Not only rustic or ordinary women but even educated women don't want to create a fuss about their private lives. To a great extent they rather tolerate every kind of unjust treatment in their families.They, as i think, seem to think that this is destiny of a woman- to endure the torture, forget the torture and be prepared for further torture. A woman dose not want to go to the court, she can not even think of taking divorce. She only waits for her own destiny to be kind enough to make her happy. There might be exceptions in this case, but general survey is so.

Now what can be done? how can we prepare our suffering women to be bold? this boldness can not come in a creature all of sudden. Some-how we should try to change our thinking. The neccessity is to think sympathetically and reasonably about their condition. they themselves should try to be just about themselves. In our social as wel as private life we should try to be wise & alert about it. The whole society, country & the whole world have to be aware about their condition. In last but not least, i can say that when in every family a woman will given equal status, than this " Women's Day" will be meaningful. Only the celebration of Women's Day can't be enough.

Wednesday, March 5, 2008

चाहत

चाहते है तुम्हें , यह कहना है मुश्किल,
पर कहे बिना भी, अब रहना है मुश्किल-
न जाने कैसे कटी, जिंदगी अब तक,
तुम बिन अब तो, एक पल रहना है मुश्किल-
सोचा न था, कि चाहेंगे किसी कों इस हद तक-
अब चाहा है तुम्हें, तो इजहार करना है मुश्किल-
सोचते है इस बार, तुम्हें देखेंगे जी भर,
पर तुम्हारी नजरों से, नजरें मिलाना है मुश्किल-
चाहते है तुम्हारे दामन मे, सिमट रहे उम्रभर,
पर तुम्हारे नजदीक, जाना है मुश्किल ॥

Sunday, March 2, 2008

स्टैण्डर्ड

आज बुढ़िया का निश्चेष्ट, शांत, पार्थिव शरीर भूमि पर लेता था। पडोसियों ने खूब सेवा सुश्रूषा की। बेचारी बुढ़िया! अपनी इकलौती संतान रवि को पुकारते पुकारते चल बसी। सब काना फूसी करने लगे- "बेचारी बुढ़िया! जिसने जीवन भर दुःख के सिवा कुछ नहीं देखा। बड़ी मुश्किल से उसने रवि को पला पोसा, पढाया- लिखाया, बड़ा आदमी बनाया और अंत काल तक भी अपने जिगर के टुकडे से मिलने को तड़पतीरही।"

अफसर रवि अंत काल तक न आया। दाह संस्कार की सामग्री जुटाई गई। पंडितजी ने संस्कार कर्म सम्पन्न किएआख़िर रवि का इंतजार कब तक किया जाता? अर्थी उठाने ही वाली थी की बाहर हार्न की आवाज सुनी दी। सभी चौकन्ने हो गए। पडौसियों के दिलों को रहत मिली। सभी की दृष्टि द्वार पर जा लगी। उन्होंने देखा की रवि चार पाँच आदमियों के साथ खटाखट चला आ रहा था। उनमे से एक दो कैमरा मैन और विडियो फ़िल्म मेकर थे।

आते ही रवि ने भरे शब्दों मी पंडितजी से कहा- "रुकिए, पंडितजी! इतनी जल्दी भी क्या है? आख़िर मेरी माँ थी। मैं बेटा ठहरा। मेरे स्टैण्डर्ड का कुछ तो ख़याल रखा होता। " रवि की यह बात सुनकर सब आवाक रह गए। आगे बढ़ कर जैसे ही रवि ने अपनी माँ की अर्थी को प्रणाम किया, निशब्द वातावरण मेँ कैमरामैन का "यश! रेडी!" शब्द मुखरित हो उठा, साथ ही प्रकाश की एक चमक दमक उठी।
विडियो फ़िल्म बन रही थी। प्रकाश बारी बारी से सबके चहरों को आलोकित करता हुआ आगे बढ़ रहा था। अपना चहरा छिप न जाए इसी वजह से सब आगे उचक रहे थे।