आज फिर एक हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। हिंदी के उत्थान व विकास की फिर से एक बार चर्चाएँ होगी। पर हिंदी के विकास के लिए किये गए तमाम प्रयासों के बावजूद क्या हम हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान दिलवा पाने मे सफल हो पाए है? यह एक विचारणीय घम्भीर प्रश्न है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही राजनीतिज्ञों द्वारा विभिन्न क्षेत्रिय भाषाओं के उत्थान के प्रयत्न प्रारम्भ हो गए थे। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों मे बोली जाने वाली प्रमुख क्षेत्रिय भाषाओं को ना केवल संविधान की आठवीं अनुसूची मे शामिल किया गया अपितु भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन भी किया गया; जो राजनीति की सबसे बड़ी भूल थी, क्योंकि क्षेत्रिय भाषा जिस प्रांत विशेष की भाषा है- वह वहां के निवासियों के लिए मातृ भाषा भी है। वह वहां के निवासियों का समन्वय सूत्र व अभिव्यक्ति का माध्यम तो हो सकती है, किन्तु भाषाओं के मूलक संकीर्णता एवं भाषाई कट्टरता के कारण भारत जैसे विशाल राष्ट्र के उत्थान मे सहायक कदापि नहीं हो सकती।
स्वतंत्रता के पश्चात् विश्रंखालित व अस्थिर भारत को आवश्यकता थी एक सुदृढ , सशक्त एवं व्यापक दृष्टिकोण रखने वाली राष्ट्र भाषा की। जो बहुसंख्यकों द्वारा प्रयुक्त हिंदी भाषा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं थी। खेद का विषय है की हम स्वतंत्रता के छ: दशकों पश्चात भी राष्ट्रीयता की प्रतीक एक राष्ट्र भाषा से वंचित रखे गए है। सर्वाधिक दूर्भाग्यपूर्ण तथ्य तो यह है की संविधान मे राष्ट्र भाषा शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, जो कि वस्तुत: किसी राष्ट्रिय नौका की सफल पतवार है। संविधान का अनुच्छेद ३४३(१) हिंदी को राजभाषा घोषित करता है ना की राष्ट्र भाषा। जबकी इन दोनों मे महती भिन्नता है। राजभाषा एक देश या राज्यों मे वहां कार्य कलापों के लिए प्रयुक्त भाषा है। जिसमे संकीर्णता का पुट होता है। जबकी राष्ट्र भाषा स्वयं मे व्यापक है, जो देश की सीमाओं से बंधी ना हो कर वहां के नगरीकों का अपने राष्ट्र के मूल्यों एवं मान्यताओं के प्रति समर्पण का द्योतक है। साथ ही सभी को एकता के सूत्र मे बांधती है।
किसी राष्ट्र भाषा की अनुपस्तिथी का ही परीणाम है कि आज हम अपने भावों की अभिव्यक्ति एवं सम्पर्क सूत्र के लिए एक विदेशी भाषा पर निर्भर रहने को बाध्य है। भिन्न- भिन्न राज्य अपनी -अपनी मातृ भाषाओं अथवा क्षेत्रिय भाषाओं का सहारा ले कर पृथकतावादी कदम उठा रहे है।
किसी राष्ट्र के लिए इससे अधिक विडम्बना क्या होगी कि हम स्वतंत्रता से अब तक के इतने लंबे अंतराल के पश्चात भी क्षेत्र- भाषाई संकीर्णता से ना उभरकर राष्ट्र भाषा के महत्त्व को नाकार रहे है। राजनीतिक स्वार्थ परायणता एवं भाषाई कट्टरता ने भी राष्ट्र भाषा की आवश्यकता को ना केवल अस्वीकार किया है, अपितु समय कुसमय अपमान भी किया है।
१९८८ नागालैंड विधानसभा मे एक सदस्य को केवल इसी कारण टोका गया, क्योंकि उसके द्वारा प्रश्न हिंदी मे पूछा गया था। साथ ही भविष्य केवल वहां की क्षेत्रिय भाषा या अंग्रेजी के प्रयोग का आदेश भी दिया गया। इसी प्रकार १९८७ मे तमिलनाडु मे हिंदी को लेकर द्रमुक सदस्यों के द्वारा अवांछनीय विरोध प्रदर्शन मे जिस प्रकार से संविधान की प्रतियाँ जलाई गयी, उन्होने तो भाषाई आधार पर गठित राज्यों की मूल भावनाओं को कुचलकर ही रख दिया। समय- समय पर विभिन्न प्रांतो द्वारा क्षेत्रिय भाषाओं के प्रति मोह के कारण राष्ट्र भाषा की ऐसी अवमानना प्रदर्शित होती रही है। देश मे न्याय के शीर्षस्थ पद पर आसीन सर्वोच्च न्यायलय भी इस कुचक्र का शिकार होने से ना बच सका। संविधान का अनुच्छेद ३४८(१) उपबंधित करता है कि संविधान की सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी मे ही की जाएँगी।
निसंदेह: भारत का उज्जवल भविष्य हिंदी के उत्थान पर ही निर्भर है। जिसके लिए आवश्यक है कि इसे राजभाषा के स्थान पर राष्ट्र भाषा का स्थान प्रदान किया जाये। साथ ही सभी भारतीय भाषाई दल बंदी से बाहर आकर 'राष्ट्र भाषा' के रुप मे हिंदी का अभिषेक करें। यह क्षेत्रिय भाषाओं के पारस्परिक संघर्ष का ही परिणाम है की पर राष्ट्र भाषा को अंगीकार करने के लिए बाध्य है जिसने मानसिक दासता की जकङन से आज भी हमे आजाद नही होने दिया है।
यह हर्ष की बात है कि संविधान के ५६ वन संशोधन ने संविधान के हिंदी संस्करण को मान्यता दे दी है। जो राष्ट्र भाषा की महती आवश्यकता को सिद्ध करता है। अत: यदि हम आज के हिंदी दिवस को सार्थक करना चाहते है तो हमे चाहिऐ की हम संकुचित वृत्ति त्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाएं तथा अपनी राष्ट्र भाषा का अधिकाधिक विकास करे। विदेशी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करें ओर राष्ट्र भाषा को समृद्ध बनायें। क्षेत्रिय भाषाएँ भी पनपे व विदेशी भाषाएँ भी सीखें, किन्तु वह राष्ट्र की उन्नति का आधार व एकता का सूत्र नहीं बन सकती। यदि हम ये सब ना कर पाए तो आज फिर एक और हिंदी दिवस औपचारिक समारोहों की धूम मे निकल जाएगा....
Friday, September 14, 2007
Wednesday, September 12, 2007
विद्यार्थी ओर राजनीति
समय समय पर विद्यार्थियों के द्वारा राजनीति मे हिस्सेदारी को ले कर समाज के प्रबुद्ध एवं वरिष्ठ लोगों द्वारा प्रश्न उठाये जाते रहे है। उनका तर्क रहा है कि विद्यार्थी जिनका कि मूल उद्देश्य विद्या अध्यन करना है, यदि राजनीति मे सक्रीय रूप से भाग लेते है, तो क्या वे अपने मूल उद्देश्य से भटक नहीं जायेंगे? ओर क्या यह कार्य उनके भविष्य निर्माण मे बाधक नहीं होगा?
यह सही है कि विद्यार्थियों का मुख्य उद्देश्य पढाई करना है। उन्हें अपना पुरा ध्यान उस ओर लगाना चाहिऐ, लेकिन राष्ट्रिय परिस्तिथियों का ज्ञान ओर उसके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना भी शिक्षा मे शामिल होना चाहिऐ, ताकी वे राष्ट्रिय समस्याओं के समाधान मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सके। क्यूंकि ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो विद्यार्थियों को देश की संरचना निमार्ण मे कोई भागीदारी नहीं देती- उन्हें व्यवहारिक रूप से अकर्मण्य बनाती है। उसे हम पूर्णत: सार्थक नहीं कह सकते है। वैसे भी एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र मे प्रत्येक नागरिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति तथा राष्ट्रिय कार्यप्रणाली मेँ भागीदारी निभाता है ओर ऐसे मेँ राजीव गांधी द्वारा प्रदत्त १८ वर्ष के व्यस्क मताधिकार से छात्रों की भागीदारी तो स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है।
अत: उपरोक्त परिस्तिथियों मे राष्ट्रिय नेतृत्व का दायित्व है की वे छात्रों मे, जिन्हे कल देश की बागडोर हर स्तर पर अपने हाथों मे लेनी है- नेतृत्व क्षमता पैदा करें, उन्हें उनके राष्ट्रिय कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक बनायें, उन्हें सांप्रदायिक व प्रथक्तावादी ताकतों के विरुद्ध एकजुट करें, उन्हें लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली से अवगत कराएँ ओर साथ ही राष्ट्रिय समस्याओं के समाधान मे उनकी भागीदारी सुनिश्चित करें। यदि वे ऐसा नहीं करते है तो वे ना सिर्फ राष्ट्र के साथ विश्वासघात करेंगे, बल्कि यह देश की भावी पीढी के साथ भी घोर अन्याय होगा। क्योंकी ऐसा ना करने पर भारतवर्ष मे एक ऐसी नेतृत्व शून्यता पैदा होगी जो देश को अनजाने अंधकारमय भविष्य की ओर धकेल देगी।
इसके अतिरिक्त छात्रों को भी चाहिऐ की वे पढे, जरुर पढे, परंतु साथ ही राष्ट्रिय गतिविधियों मे भी सक्रीय भागीदारी निभाए ओर अधिकार तथा जिम्मेदारियों को समझते हुये राष्ट्रिय परिपेक्ष्य मे जब, जहाँ, जितनी आवश्यकता हो अपना संपूर्ण योगदान दे। ऐसा करने पर ही वो भारतवर्ष को उन्नति के चरमोत्कर्ष ले जा सकने मे सफल हो सकेंगे तथा उस राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे जो नेहरू गांधी के सपनो का राष्ट्र था।
यह सही है कि विद्यार्थियों का मुख्य उद्देश्य पढाई करना है। उन्हें अपना पुरा ध्यान उस ओर लगाना चाहिऐ, लेकिन राष्ट्रिय परिस्तिथियों का ज्ञान ओर उसके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना भी शिक्षा मे शामिल होना चाहिऐ, ताकी वे राष्ट्रिय समस्याओं के समाधान मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सके। क्यूंकि ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो विद्यार्थियों को देश की संरचना निमार्ण मे कोई भागीदारी नहीं देती- उन्हें व्यवहारिक रूप से अकर्मण्य बनाती है। उसे हम पूर्णत: सार्थक नहीं कह सकते है। वैसे भी एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र मे प्रत्येक नागरिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति तथा राष्ट्रिय कार्यप्रणाली मेँ भागीदारी निभाता है ओर ऐसे मेँ राजीव गांधी द्वारा प्रदत्त १८ वर्ष के व्यस्क मताधिकार से छात्रों की भागीदारी तो स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है।
अत: उपरोक्त परिस्तिथियों मे राष्ट्रिय नेतृत्व का दायित्व है की वे छात्रों मे, जिन्हे कल देश की बागडोर हर स्तर पर अपने हाथों मे लेनी है- नेतृत्व क्षमता पैदा करें, उन्हें उनके राष्ट्रिय कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक बनायें, उन्हें सांप्रदायिक व प्रथक्तावादी ताकतों के विरुद्ध एकजुट करें, उन्हें लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली से अवगत कराएँ ओर साथ ही राष्ट्रिय समस्याओं के समाधान मे उनकी भागीदारी सुनिश्चित करें। यदि वे ऐसा नहीं करते है तो वे ना सिर्फ राष्ट्र के साथ विश्वासघात करेंगे, बल्कि यह देश की भावी पीढी के साथ भी घोर अन्याय होगा। क्योंकी ऐसा ना करने पर भारतवर्ष मे एक ऐसी नेतृत्व शून्यता पैदा होगी जो देश को अनजाने अंधकारमय भविष्य की ओर धकेल देगी।
इसके अतिरिक्त छात्रों को भी चाहिऐ की वे पढे, जरुर पढे, परंतु साथ ही राष्ट्रिय गतिविधियों मे भी सक्रीय भागीदारी निभाए ओर अधिकार तथा जिम्मेदारियों को समझते हुये राष्ट्रिय परिपेक्ष्य मे जब, जहाँ, जितनी आवश्यकता हो अपना संपूर्ण योगदान दे। ऐसा करने पर ही वो भारतवर्ष को उन्नति के चरमोत्कर्ष ले जा सकने मे सफल हो सकेंगे तथा उस राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे जो नेहरू गांधी के सपनो का राष्ट्र था।
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