7 अगस्त 1942 की बात है। उस दिन बम्बई में कांग्रेस का महाधिवेशन शुरू हुआ था। महाधिवेशन के दूसरे दिन 8 अगस्त को महात्मा गांधी ने अंग्रेजी और हिन्दी में तीन घंटे तक अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। इसके साथ ही उन्होंने ‘करो या मरो’ का आह्यन किया। उनके कहने का आशय था कि आजादी के लिए इतना संघर्ष करो कि उसके लिए प्राण भी न्योछावर करना पड़े तो करो। पीछे मत हटो। महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। लिहाजा वे इस आंदोलन को अहिंसक तरीके से ही चलाना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों की एक नीतिगत गलती के कारण यह उग्र हो उठा और थाना, पोस्ट ऑफिस, रेलवे स्टेशन इत्यादि में तोड़-फोड़, आगजनी और रेलवे पटरियों को उखाड़ने जैसी हिंसक घटनाएं होने लगी। उस समय उत्तर प्रदेश के बलिया सहित कई स्थानों को लोगों ने आजाद करा लिया था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए दमनकारी नीति अपनाई। इस क्रम में दस हजार से भी अधिक लोग मारे गए और लाखों की संख्या में जेलों में ठूंस दिए गये। इसके बाद भी आंदोलन की ज्वाला शांत नही हुई बल्कि और तेजी से धधकने लगी। सन 1857 के विद्रोह के बाद यह अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन था जो देश के कोने-कोने में फैल गया था। उस समय भारतवासी आजादी से कम किसी चीज पर समझौता करने के लिए तैयार नही थे और इसके लिए हर प्रकार का बलिदान देने को तैयार थे। इस आंदोलन से भारत तत्काल भले ही स्वतंत्र न हो पाया हो लेकिन इसने अंग्रेजों को यह अहसास जरूर करा दिया कि अब उनकी हुकूमट के दिन लद चुके है और भारतवासी उन्हे ज्यादा समय तक बर्दाश्त करने वाले नही है। आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए अंग्रेजों को समझ में आ चुका था कि वे इस देश पर औपनिवेशिक शासन करने का नैतिक अधिकार खो चुके है।
“भारत छोड़ो” आंदोलन ने देश भर में राष्ट्रवाद की व्यापक लहर पैदा कर दी थी लेकिन ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’, ‘मुस्लिम लीग’ व ‘राष्ट्रीय सेवक संघ’ ने इसमें भाग नही लिया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का मानना था कि चूंकि दूसरा विश्वयुद्ध फासिस्ट और लोकतांत्रिक देशों के बीच चल रहा है और ब्रिटेन लोकतांत्रिक खेमे का नेतृत्व कर रहा है इसलिए अभी उसका विरोध करना उचित नहीं है। उन्होंने राष्ट्रवाद की लहर को नजर-अंदाज कर अन्तराष्ट्रीय परिदृश्य को प्राथमिकता दी। हालांकि बाद में उनके नेताओं ने स्वीकार किया कि यह उनकी नीतिगत भूल थी। मुस्लिम लीग और उसके नेता जिन्ना का उस समय मुसलमानों का अलग देश बनाना एजेंडा बन चुका था। वे तब तक आजादी नहीं चाहते थे जब तक उनको अलग देश देने के लिए अंग्रेज तैयार ना हो जाएं? अंग्रेज भी दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद ही भारत की आजादी के संबंध में कोई बातचीत करना चाहते थे। लेकिन राष्ट्रीय सेवक संघ का इस आंदोलन से अलग रहने का कोई नीतिगत कारण नही था। इस समय संघ के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर थे। उनका कहना था कि कांग्रेस ने उनसे सहयोग लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया। इस तर्क का कोई अर्थ नहीं था। इस देश की आजादी की लड़ाई थी इसका आह्यन जरूर कांग्रेस ने किया था, लेकिन इसमे शामिल होने के लिए किसी ने किसी को निमंत्रण नही दिया था। लोग राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर इसमें स्वतः शामिल हो रहे थे। गांधी ने जब ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो ब्रिटिश हुक्मरानों ने उसी रात कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया और हिंसक रूप धारण कर लिया। उस समय भी अगर संघ ने नेतृत्व संभाल लिया होता तो आंदोलन एक निर्धारित दिशा में संचालित होता और उसकी उग्रता को एक दिशा मिलती। आंदोलन ने जो रूप धारण कर लिया था, कांग्रेस ने उसकी कल्पना भी नही की थी। ऐसे में प्रश्न ही कहां उठता है कि कांग्रेस दूसरे संगठनों का समर्थन प्राप्त करने प्रयास करती या निमंत्रण देती। अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस आंदोलन में भागीदारी की होती तो इसकी धार कुछ और ही होती।
कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली जैसे कुछ युवा नेता इसको भूमिगत हो कर चलाने लगे। लेकिन उनके पास सिर्फ कुर्बानी का जज्बा था। कोई संगठित कैडर नही था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास, जैसा कि वो सैदव दावा करते हैं, एक अनुशासित और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कैडर थे। उसके शामिल होने पर ब्रिटिश शासकों को आंदोलन का दमन करना आसान नही होता। अंग्रेजों को खुफिया रिपोर्ट मिल चुकी थी कि संघ इसमें शामिल नहीं होगा इसके कारण उनके सामने चुनौतियां कम हो गई थीं। यही कारण था की उस वक्त अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों की एक बात भी नही मानी। उनके अड़ियल रुख को देखते हुए गांधी जी ने 12 फरवरी 1943 से 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया। उस समय के वायसराय गांधी जी के उपवास से विचलित नही थे। वे गांधी जी के मरने के बाद की परिस्थितियों पर काबू करने की योजना भी बना चुके थे लेकिन इसी बीच इस अंग्रेजों के रवैये से क्षुब्ध होकर वायसराय कौंसिल के तीनों भारतीय सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। इसेक बाद वायसराय गांधी को रिहा करने को विवश हो गए। हालांकि अगस्त क्रांति का तत्काल कोई प्रतिफल सामने नही आया लेकिन यह अंग्रेजों के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इसे इत्तीफाक ही कहेंगे की 1945 में विश्वयुद्ध समाप्त होने के साथ ही भारत के आजादी के घोर विरोधी चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद से हट गए और उनकी जगह एटली प्रधानमंत्री बने जो औपनिवेशिक सत्ता के विरोधी थे और भारत की आजादी के पक्ष में थे। उनके सत्ता में आते ही भारत की आजादी की प्रक्रिया शुरू हुई। भारत दो टुकड़ों में बंट कर आजाद हुआ। आज संघ नेता भले ही इसे स्वीकार न करें लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि यदि राष्ट्रीय सेवक संघ ने अगस्त क्रांति में पूरी तन्मयता से भाग लिया होता तो भारत की आजादी भले ही कुछ दिनों के लिए टल जाती लेकिन भारत दो टुकड़ों मे बंटने से बच जाता।
http://indianlooknews.com/opinion/august-revolution-and-rss/