Monday, August 9, 2021

अगस्त क्रांति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

7 अगस्त 1942 की बात है। उस दिन बम्बई में कांग्रेस का महाधिवेशन शुरू हुआ था। महाधिवेशन के दूसरे दिन 8 अगस्त को महात्मा गांधी ने अंग्रेजी और हिन्दी में तीन घंटे तक अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। इसके साथ ही उन्होंने ‘करो या मरो’ का आह्यन किया। उनके कहने का आशय था कि आजादी के लिए इतना संघर्ष करो कि उसके लिए प्राण भी न्योछावर करना पड़े तो करो। पीछे मत हटो। महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। लिहाजा वे इस आंदोलन को अहिंसक तरीके से ही चलाना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों की एक नीतिगत गलती के कारण यह उग्र हो उठा और थाना, पोस्ट ऑफिस, रेलवे स्टेशन इत्यादि में तोड़-फोड़, आगजनी और रेलवे पटरियों को उखाड़ने जैसी हिंसक घटनाएं होने लगी। उस समय उत्तर प्रदेश के बलिया सहित कई स्थानों को लोगों ने आजाद करा लिया था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए दमनकारी नीति अपनाई। इस क्रम में दस हजार से भी अधिक लोग मारे गए और लाखों की संख्या में जेलों में ठूंस दिए गये। इसके बाद भी आंदोलन की ज्वाला शांत नही हुई बल्कि और तेजी से धधकने लगी। सन 1857 के विद्रोह के बाद यह अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन था जो देश के कोने-कोने में फैल गया था। उस समय भारतवासी आजादी से कम किसी चीज पर समझौता करने के लिए तैयार नही थे और इसके लिए हर प्रकार का बलिदान देने को तैयार थे। इस आंदोलन से भारत तत्काल भले ही स्वतंत्र न हो पाया हो लेकिन इसने अंग्रेजों को यह अहसास जरूर करा दिया कि अब उनकी हुकूमट के दिन लद चुके है और भारतवासी उन्हे ज्यादा समय तक बर्दाश्त करने वाले नही है। आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए अंग्रेजों को समझ में आ चुका था कि वे इस देश पर औपनिवेशिक शासन करने का नैतिक अधिकार खो चुके है।

“भारत छोड़ो” आंदोलन ने देश भर में राष्ट्रवाद की व्यापक लहर पैदा कर दी थी लेकिन ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’, ‘मुस्लिम लीग’ व ‘राष्ट्रीय सेवक संघ’ ने इसमें भाग नही लिया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का मानना था कि चूंकि दूसरा विश्वयुद्ध फासिस्ट और लोकतांत्रिक देशों के बीच चल रहा है और ब्रिटेन लोकतांत्रिक खेमे का नेतृत्व कर रहा है इसलिए अभी उसका विरोध करना उचित नहीं है। उन्होंने राष्ट्रवाद की लहर को नजर-अंदाज कर अन्तराष्ट्रीय परिदृश्य को प्राथमिकता दी। हालांकि बाद में उनके नेताओं ने स्वीकार किया कि यह उनकी नीतिगत भूल थी। मुस्लिम लीग और उसके नेता जिन्ना का उस समय मुसलमानों का अलग देश बनाना एजेंडा बन चुका था। वे तब तक आजादी नहीं चाहते थे जब तक उनको अलग देश देने के लिए अंग्रेज तैयार ना हो जाएं? अंग्रेज भी दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद ही भारत की आजादी के संबंध में कोई बातचीत करना चाहते थे। लेकिन राष्ट्रीय सेवक संघ का इस आंदोलन से अलग रहने का कोई नीतिगत कारण नही था। इस समय संघ के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर थे। उनका कहना था कि कांग्रेस ने उनसे सहयोग लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया। इस तर्क का कोई अर्थ नहीं था। इस देश की आजादी की लड़ाई थी इसका आह्यन जरूर कांग्रेस ने किया था, लेकिन इसमे शामिल होने के लिए किसी ने किसी को निमंत्रण नही दिया था। लोग राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर इसमें स्वतः शामिल हो रहे थे। गांधी ने जब ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो ब्रिटिश हुक्मरानों ने उसी रात कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया और हिंसक रूप धारण कर लिया। उस समय भी अगर संघ ने नेतृत्व संभाल लिया होता तो आंदोलन एक निर्धारित दिशा में संचालित होता और उसकी उग्रता को एक दिशा मिलती। आंदोलन ने जो रूप धारण कर लिया था, कांग्रेस ने उसकी कल्पना भी नही की थी। ऐसे में प्रश्न ही कहां उठता है कि कांग्रेस दूसरे संगठनों का समर्थन प्राप्त करने प्रयास करती या निमंत्रण देती। अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस आंदोलन में भागीदारी की होती तो इसकी धार कुछ और ही होती।

कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली जैसे कुछ युवा नेता इसको भूमिगत हो कर चलाने लगे। लेकिन उनके पास सिर्फ कुर्बानी का जज्बा था। कोई संगठित कैडर नही था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास, जैसा कि वो सैदव दावा करते हैं, एक अनुशासित और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कैडर थे। उसके शामिल होने पर ब्रिटिश शासकों को आंदोलन का दमन करना आसान नही होता। अंग्रेजों को खुफिया रिपोर्ट मिल चुकी थी कि संघ इसमें शामिल नहीं होगा इसके कारण उनके सामने चुनौतियां कम हो गई थीं। यही कारण था की उस वक्त अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों की एक बात भी नही मानी। उनके अड़ियल रुख को देखते हुए गांधी जी ने 12 फरवरी 1943 से 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया। उस समय के वायसराय गांधी जी के उपवास से विचलित नही थे। वे गांधी जी के मरने के बाद की परिस्थितियों पर काबू करने की योजना भी बना चुके थे लेकिन इसी बीच इस अंग्रेजों के रवैये से क्षुब्ध होकर वायसराय कौंसिल के तीनों भारतीय सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। इसेक बाद वायसराय गांधी को रिहा करने को विवश हो गए। हालांकि अगस्त क्रांति का तत्काल कोई प्रतिफल सामने नही आया लेकिन यह अंग्रेजों के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इसे इत्तीफाक ही कहेंगे की 1945 में विश्वयुद्ध समाप्त होने के साथ ही भारत के आजादी के घोर विरोधी चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद से हट गए और उनकी जगह एटली प्रधानमंत्री बने जो औपनिवेशिक सत्ता के विरोधी थे और भारत की आजादी के पक्ष में थे। उनके सत्ता में आते ही भारत की आजादी की प्रक्रिया शुरू हुई। भारत दो टुकड़ों में बंट कर आजाद हुआ। आज संघ नेता भले ही इसे स्वीकार न करें लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि यदि राष्ट्रीय सेवक संघ ने अगस्त क्रांति में पूरी तन्मयता से भाग लिया होता तो भारत की आजादी भले ही कुछ दिनों के लिए टल जाती लेकिन भारत दो टुकड़ों मे बंटने से बच जाता।

http://indianlooknews.com/opinion/august-revolution-and-rss/


Friday, August 6, 2021

A Feminist Beyond Time

 Sucheta kriplani needs no introduction but in todays time when women safety and gender ratio is a national concern, women like her have become a necessity to be cited for her fearlessness and courage in a patriarchal world of that period. 

Born at Ambala to a Bengali family, she lived lived her life on her own terms, worked with values and for greater purpose in her personal and public life. She worked along side gandhi and she married out of choice going against her family, two things a regular girl even today is not free or liberated enough to do.

She studied at Indrprashath College and Punjab University before becoming a Professor of Constitutional History at Banaras Hindu University. 

Like Aruna Asaf Ali and Usha Mehata, who were her contemporaries, she came to the forefront during the August Kranti- The Quit India Movement. Later she got opportunity to work closely with Mahatma Gandhi during the Partion riots. She accompanied him to Naakhali in 1946. She was one of the few women who were elected for constituent assembly and further became member of the subcommittee of the drafting body of the indian constitution, therefore as a natural outcome, she continued with her politics even after independence and went on become the first lady chief minister of the indian state of uttar pradesh in 1963.

Her life is full of instances this prove that her strength of character and conviction about her beliefs were exemplary. One particular incident that she mentions in her biographical account is not as much about independence, anti british agitation or politics but its about her honesty and clarity in dealing with human emotions. She mentions of her relief work in bihar earth quake where she was invited to join Mahila Ashram in Wardha and Vinobha bhave was to apporve of her name. She eventually ended up not joining the Ashram based on vinobha bhave's stand and punishment meted out to himself and young adults who had fallen in love. “Vinoba Bhave was, I think, the Chairman of the Board and had to approve of me. When I was taken to see him, he was fasting to expiate for the sin of two young people living in the ashram complex who had fallen in love with each other! These two were going about the ashram with hurt faces. The whole thing appeared to me rather atrocious. Vinoba’s rigid attitude and extreme self-mortification somehow put me off from joining the Mahila Ashram,” she writes. 

Post-Independence, she faced a complex and indifferent situation in Indian politics. When because of personal and political difference, her husband broke away from Nehru and formed his own party, but she remained with congress (except short period of time when she joined her husband's party but later she returned to the congress). "Both husband and wife had different political loyalties and never questioned each other, exemplifying democracy of a different kind."

Ms. Kriplani has been called a firm administrator and but never an able leader or a prominant politician in the books. Politics has not always been fair to women on paper despite the fact that few managed to beat the cliche and rise above the regular passing references. Ms. Kriplani on the other hand awaits a deeper scrutiny and nuanced reading of her career. She was a feminist in theory and in practice, she broke many sterotypes with as little aggression as possible.

 


https://www.babuaa.com/news/view/21283

Friday, October 2, 2020

उन पैरों के निशां अभी बाकी हैं


 "रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम" गाने की आवाज जैसे ही कानों मे पड़ी, मैं जूरी से बोली, "लो डियर बज गए पांच! चल उठ, तैयार हो कर छ: बजे प्रार्थना स्थल पर पहुँचना है।

                      तैयार हो तम्बू में सामान पैक करते समय विचारों की लय में कब बह निकली पता ही नहीं चला...। दांडी यात्रा की 75 वीं वर्षगांठ पर उसी समय, उसी स्थान पर 78 यात्रियों के साथ पुन: दांडी यात्रा आयोजित की जा रही है। 78 यात्रियों के अलावा भी सेवा दल, स्वयं सेवी संस्थाओं से जुड़े लोग, बहुत से मीडिया इत्यादि लोगों का झुंड का झुंड चल रहा है। शहरों व गावों में लोगों द्वारा स्वागत देखते ही बनता है।

                      पर इस दांडी यात्रा और गाँधी की दांडी यात्रा में कुछ तो फर्क है? है न, उस समय हर व्यक्ति एक ही उद्देश्य से चल रहा था, ब्रिटिश साम्राज्य की तानाशाही का अंत। परन्तु, यहाँ कोई इस ऐतिहासिक यात्रा का हिस्सा बनाना चाहता है, तो कोई एडवंचर करना चाहता है। कुछ तो ऐसे भी जो किसी राजनीतिक कारण से या सरकारी ड्यूटी की वजह से चल रहे हैं...।

"क्या सोच रही है? प्रार्थना की लाइन लग गई है। चल, प्रार्थना नहीं करवानी है तुझे?" जूरी की आवाज ने मेरी सोच की लय को भंग कर दिया।

                        प्रार्थना...और फ़िर से पदयात्रा शुरू...। रास्ते में चलते हुए एक न्यूज चैनल के रिपोर्टर मुलाक़ात हो गई। बातचीत में सुबह-सुबह हमें रघुपति राघव के आलार्म से जगाने वाले शख्स की चर्चा चल पड़ी। "सच में कितने मन से सारा दिन लोगों की सेवा करता है।" मेरी बात सुनकर रिपोर्टर ने उस व्यक्ति से मिलने और उसका इंटरव्यू लेने की इच्छा जाहिर की। मुझे भी लगा कि उस व्यक्ति की निस्वार्थ सेवा सब के लिए प्रेरणा बन सकती है।

                     लैंच ब्रेक के स्थान पर पहुँचने के बाद मैं उस व्यक्ति कों ढूँढने निकल पड़ी। हर कोई भरी दोपहरी में सुस्ता कर अपनी थकान मिटा रहा था। तभी वो मुझे किसी के पाँव दबाता दिखाई पड़ा। मैं उसकी ओर बढ़ी।

"भइया जी, चलो टी.वी. वाले आपका इंटरव्यू लेना चाहते है।" मैंने उसे कहा। वो चुपचाप मेरे साथ चल पड़ा। "भाई रिपोर्टर महोदय कहाँ है?" न्यूज चैनल कि वैन पर पहुँच कर मैंने ड्राइवर से पूछा। "यहीं पास में ही गए हैं, आते ही होंगे।" ड्राइवर ने जवाब दिया। "अब इसे लायी हूँ तो बेचारे का इंटरव्यू करवा ही दिया जाए।" यह सोचकर मैं वहां खड़ी हो गई। 

                      थोड़ा वक्त बिताने पर वो मुझसे बोला, "मैडम मैं चलता हूँ, मेरा वक्त बरबाद हो रहा है।" मुझे बड़ा गुस्सा आया। अरे भई, यहाँ सुबह से लोगों में टी.वी. चैनल में शक्ल दिखाने की होड़ लगी रहती है। इसको चला कर मौका दिला रही हूँ , वो भी भरी दोपहरी में इसके साथ खड़े रहकर, तो इसको कदर ही नहीं है। मैंने पूछ ही लिया, "क्या भैया ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण काम चूक रहा है?" वो बोला, " मैडम इतनी देर में कई लोगों की सेवा कर लूँगा। आप इन्हें वहीं ले आना। मैं थके-मांदे लोगों के पैर भी दबाता रहूंगा और इन्हें जो पूछना होगा वो पूछ लेंगें। "

                       जैसे ही वो चलने को पलटा, मैंने उसे टोका, "क्या नाम है आपका?" वो ठिठक कर धीरे से बोला ''राजू''। "क्या करते हो?" मेरा अगला सवाल था। "मैडम, बेटे के साथ गांवों में घूमकर प्रेशर कुकर ठीक करने का काम करता हूँ। किसी तरह परिवार पाल लेते हैं।" उसका जवाब था। अब मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी। मुश्किल से रोटी-रोजी का जुगाड़ करने वाला यह व्यक्ति यहाँ दांडी यात्रा में किस उद्देश्य से है? इसे पार्टी में पद नहीं चाहिए, चुनाव लड़ने की तो बेचारा कल्पना भी नहीं कर सकता, ड्यूटी किसी ने लगाई नहीं और अडवंचरस तो ईश्वर ने इसकी जिंदगी वैसे ही बना रखी है। फिर किसलिए है यहाँ? और फिर ये सेवा का जुनून!! क्या वजह हो सकती? "रोटी-रोजी छोड़ कर दांडी यात्रा में क्या कर रहे हो?" मैंने उससे पूछा। "मैडम, मैंने सुना था कि देश की आजादी के लिए गांधीजी ने दांडी यात्रा की थी। आज फिर आप लोग उसी आजादी को बचाने और मजबूत करने को चल रहे हैं। मैं उस यात्रा के समय तो नहीं था, पर आज तो हूँ। मैंने सोचा जब आप सब इस महान काम के लिए घर-बार छोड़ कर चल रहे हैं तो आप लोगों की सेवा करके थोड़ा पुण्य मैं भी  कमा लूँ।"

                        सपाट और सरल शब्दों में जवाब दे कर 'रघुपति - राघव' गाते फिर निकल पड़ा। हम में से ही किसी 'महान दांडी यात्री' की सेवा के लिए...।


Published at https://www.babuaa.com/news/view/16387 on 2nd October 2020

Wednesday, September 30, 2020

प्रगति के विपरीत : राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020)

1903 में, भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय आयोग की सिफारिश के बाद एक नया विश्वविद्यालय विधेयक पेश किया। विधेयक पर टिप्पणी करते हुए, महान राष्ट्रवादी पंडित मदन मोहन मालवीय ने कहा, "विश्वविद्यालय आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश के अनुरूप विश्वविद्यालय विधेयक, यदि कानून में पारित हो जाता हैं, तो  शिक्षा के क्षेत्र को प्रतिबंधित करने और विश्वविद्यालय की स्वायत्ता को पूरी तरह से नष्ट करने का कार्य करेगा, जिन पर काफी हद तक उनकी दक्षता और उपयोगिता निर्भर करती है, और यह उन्हें व्यावहारिक रूप से सरकारी विभागों में बदल देगा।" जहाँ विश्वविद्यालय विधेयक का उद्देश्य देश में उच्च शिक्षा के स्तर में सुधार करना होता है, वहीं समालोचना से पता चलता है कि किस तरह यह बिल एक सारहीन तथा बिना दूरदृष्टि के तैयार किया गया था। उपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किये गए विश्वविद्यालय विधेयक के 100 से अधिक वर्षों के बाद, भाजपा शासित भारत सरकार ने उसी उपनिवेशिक समान्तर सोच के साथ और भारत में शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय शैक्षिक नीति (2020) पारित की है।



एनईपी के सभी प्रावधानों में से, सबसे विनाशकारी और घातक विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए एक एकल नियामक के रूप में उच्च शिक्षा आयोग की शुरूआत है। अब तक, विभिन्न विश्वविद्यालयों, चाहे सार्वजनिक वित्त पोषित हों या निजी, उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के नियंत्रण में रखा गया था। इसी तरह, सभी तकनीकी संस्थान अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) के नियामक प्राधिकरण के अंतर्गत आते हैं। ये दोनों संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) का हिस्सा थे; और इसका मुख्य उद्देश्य भारत में उच्च शिक्षा को विनियमित करना था। यूजीसी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों को धन मुहैया कराता है; तथा इसने सदैव विभिन्न संस्थानों की संबद्धता के विषय में दृष्टि रखी; पाठ्यक्रम में एकरूपता होने के लिए दिशानिर्देश जारी किये; और विश्वविद्यालय प्रशासन, शिक्षक संघ, छात्रों और विभिन्न हितधारकों के बीच संघर्ष में मुख्य मध्यस्थ के रूप में काम किया। एनईपी के तहत, यूजीसी और एआईसीटीई दोनों को समाप्त कर दिया गया है और इनके स्थान पर उच्च शिक्षा आयोग (HEC ) को स्थापित किया गया है। हालाँकि सुधार की पक्षधर लॉबी ने एक स्वागत योग्य कदम के रूप में इसकी सराहना की है, परंतु यदि इसे लागु किया जाता है तो इस आयोग के साथ दो बुनियादी समस्याएँ हैं। सबसे पहले, यूजीसी और एआईसीटीई पहले से ही लाखों उच्च शिक्षा संस्थानों (कॉलेजों, राज्य के विश्वविद्यालयों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, अनुसंधान संस्थानों, नीति-थिंक टैंकों इत्यादि) की देखरेख की भारी जिम्मेदारी के साथ बोझिल रहे हैं। प्रतिनिधित्व/ विकेन्द्रीकरण के बिना एक अपरिपक़्व भारतीय शिक्षा प्रणाली, भारत में उच्च शिक्षा के इसी कुप्रबंधन का प्रमुख कारण है। इन दोनों नियामकों के सम्मुख  मुख्य समस्या- नकली, डीम्ड विश्वविद्यालयों, संबद्धताओं के बिना संस्थानों और खुले बाजार में डिग्री बेचने वाले विश्वविद्यालयों का उत्कर्ष है। इस संदर्भ में, एक प्रश्न पूछना चाहिए: जब दो नियामक संकट का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं थे, तो एक केंद्रीकृत आयोग लाने से इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? वास्तव में, एचईसी जैसे एक नियामक के तहत अधिकारों का केंद्रीकरण केवल कुप्रबंधन की मौजूदा समस्या को और अधिक बढ़ा देगा।



एचईसी के साथ दूसरी मूलभूत समस्या उसकी वर्गीकृत स्वायत्ता (Graded Autonomy) की अवधारणा है। एनईपी में उल्लिखित एचईसी के लिए जनादेश अगले 5-10 वर्षों तक सभी उच्च शिक्षा संस्थान को वर्गीकृत स्वायत्तता  (Graded Autonomy) प्रदान करना है। वास्तव में, शिक्षा प्रणाली में विभिन्न हितधारक (stakeholders) सरकार के फरमान से स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं। संस्थागत स्वायत्तता और दैनिक कार्यों में  अनावश्यक सरकारी नियंत्रण, सरकारी संस्थानों में नियुक्ति और पदोन्नति में राजनीतिक पक्षपात, आधुनिक पाठ्यक्रम को पढ़ाने की स्वतंत्रता पर अंकुश और नौकरशाही के हस्तक्षेप इत्यादि आज बहस का मुद्दा है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि NEP सरकार की तरफ से शिक्षण संस्थानों पर अपनी पकड़ ढीली करने का सकारात्मक प्रयास है। बहरहाल, मामला यह नहीं है। एनईपी के माध्यम से, भाजपा सरकार ने जो पेशकश की है, वह राज्य अथवा राजनीति से शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता देने का नहीं; वरन उन्हें वित्तीय स्वायत्तता / स्व-वित्तपोषण के घातक प्रावधान की ओर धकेलने का षड्यंत्र है। लगभग तीन दशकों से, भारतीय संस्थान धन की कमी, शिक्षक-छात्र अनुपात में गिरावट, बुनियादी ढांचे के उन्नयन में विफलता और चुनौतियों का सामना करने के कारण बीमारु स्तिथि में हैं। इस तरह के समय में, स्व-वित्तपोषित या वित्तीय स्वायत्तता का प्रावधान सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थानों के भविष्य को मृत्युशैया पर डालने की कुचेष्टा है। यह सार्वजनिक शिक्षा का निजीकरण करने और इसे एक लाभदायक व्यवसाय उद्यम में बदलने का एक स्पष्ट प्रयास है। जब भी इसे लागू किया जायेगा, तो यह लाखों सामजिक व आर्थिक रूप से हाशिये पर आने वाले छात्रों को शिक्षा से बाहर कर दिये जाने का प्रमुख कारण बनेगा। इस योजना में, JNU / DU / HCU / TISS / AUD / JU जैसे प्रमुख सार्वजनिक विश्वविद्यालय बिना किसी वित्तीय सहायता व पोषण के समाप्त हो जाएंगे, जबकि निजी विश्वविद्यालय पनपेंगे। इससे न केवल सामाजिक असमानताएं पैदा होंगी और सीखने पर असर पड़ेगा, बल्कि इससे गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों पर अतिरिक्त वित्तीय दबाव भी पड़ेगा। वह दिन दूर नहीं जब कुकुरमुत्तों की भांति खुलने वाले निजी विश्वविद्यालय शैक्षिक डिग्री बेचने वाला मछली बाजार बन जाएगें।



जैसा कि राष्ट्रीय मीडिया में बताया गया है, एनईपी आरएसएस के एजेंडे का एक हिस्सा है, जो अपने अंधराष्ट्रवादी सांस्कृतिक एजेंडे को लागू करने और मजबूत करने के लिए प्रयासरत है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को लागू करना एक ऐसा ही प्रावधान है। यदि भाषा के मापदंड को हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के लिए लाया जाता है, तो उन्हें हर स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह तर्क देने के लिए कि अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी या क्षेत्रीय भाषा को लाया जाना चाहिए, उन्हें बढ़ावा देने के लिए एक अच्छी रणनीति नहीं है। भारत में कई दशकों से हिंदी का बिगुल बजता रहा है। हालांकि, इसे बढ़ावा देने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं। उदाहरण के लिए, SC और HC दोनों में, हिंदी में कार्यवाही भरने के लिए कोई जगह नहीं है। अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थान विशेष रूप से अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा देते हैं। सभी नौकरशाही और सरकारी आधिकारिक पत्राचार का माध्यम भी अंग्रेजी में ही होता हैं। क्या सरकार इस सबको बदलने जा रही है? उदाहरण के लिए चीन, रूस, तुर्की, फ्रेंच आदि देश सभी अपनी मातृभाषा में अपने सभी आधिकारिक और नौकरशाही कार्यों का संचालन करते हैं। वहां की सड़कों पर साइनबोर्ड और यहाँ तक कि उनके अंतरिक्ष स्टेशन के निर्देश तक मातृभाषा में ही लिखे होते हैं। इस प्रकार, यदि कोई हिंदी और क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के बारे में गंभीर है, तो राज्य को क्षेत्रीय / राष्ट्रीय भाषा के प्रति आम जनता के पूरे ढांचे और दृष्टिकोण को बदलने में गंभीर निवेश करने की आवश्यकता है। हमें न सिर्फ हिंदी व क्षेत्रीय भाषा में मूल लेखन को बढ़ावा देना होगा बल्कि साथ ही क्लासिक अंग्रेजी लेखन का भी अनुवाद करना होगा।



वर्त्तमान में जिस प्रकार अंग्रेजी राष्ट्र के रोजमर्रा के जीवन पर हावी है, हिंदी को बढ़ावा देने का वादा सिर्फ एक खोखला कार्य प्रतीत होता है। अगर बीजेपी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए वास्तव में गंभीर है, तो उन्हें इसे दैनिक, सामान्य लेनदेन की भाषा के रूप में अपनाना चाहिए। चूँकि अनिवार्य रूप से हिंदी/मातृभाषा का प्रावधान केवल सरकारी वित्त पोषित स्कूल पर लागू होगा, यह एक और वर्ग विभाजन पैदा करेगा। जिस तरह प्राचीन शिक्षा प्रणाली जाति आधारित आरक्षण पर आधारित थी, एनईपी इसे वर्ग के आधार पर आरक्षण से बदल देगा। अमीर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम, जो वैश्विक प्रतियोगिता की भाषा है, के निजी स्कूल में पढ़ाएंगे और सरकारी स्कूल में गरीब बच्चों को हिंदी भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जाएगा। अत:भाजपा सरकार को मात्र अपना राजनीतिक एजेंडा थोपने के बजाय इस मामले को गंभीरता से देखना चाहिए।



अंत में, गांधीजी ने एक बार कहा था, "जो आम जनता के साथ साझा नहीं किया जा सकता है, वो मेरे लिए वर्जित है।" अतः हम उस प्रणाली को स्वीकार नहीं कर सकते हैं जिसमें आप विशेष वर्ग के बच्चों लिए कांच के घर उपलब्ध करते हैं और 90% स्कूली बच्चों के लिए पेंसिल और स्लेट नहीं हैं। इस प्रकार, नई शिक्षा नीति विभिन्न विचारों और धारणाओं के लिए स्थान को नियंत्रित करने की कोशिश मात्र है।


Published 2 August 2020 आलेख : प्रगति के विपरीत राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 - डॉ. चयनिका उनियाल -

 http://indianlooknews.com/opinion/national-education-policy-2020-opinion-by-chaynika-uniyal/

बिना वजह बगावत

अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच चल रही नोक-झोंक व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अब कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए एक पिता की कोशिश व एक जिद्दी बच्चे के अपने ही घर को तोड़ने के प्रयास के रूप में एक पारिवारिक झगड़े की तरह प्रतीत हो रही है। चल रहे घटनाक्रम ने केएल मीडिया (खान बाजार + लुटियन) द्वारा राजनीतिक नेतृत्व के तथाकथित रूप से खिंचाई करने के तौर-तरीकों को भी उजागर किया है। इस संदर्भ में, अशोक गहलोत द्वारा की टिप्पणी-  “कोई अच्छा इंगलिश-हिंदी बोलता है, अच्छी बाइट देता है, वही सब-कुछ नहीं होता है” (Speaking well in English-Hindi, giving good bytes is not everything); पर जिस प्रकार से ANI द्वारा अपने ट्वीट में “हिंदी” शब्द का उड़ा दिया जाना और दिल्ली मिडिया द्वारा इस वक्तव्य को पूर्व पीसीसी प्रमुख के खिलाफ कथित तौर पर प्रसारित करने की कोशिश करना, मीडिया की नियत पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह लगता है।


मिडिया के विपरीत, सोशल मीडिया पोस्ट पर राजस्थान राजनीतिक संकट पर टिप्पणियों से पता चलता है कि कैसे दिल्ली मीडिया जमीनी स्थिति के बारे में अस्पष्ट था और झूठ प्रसारित करने में लगा रहा। दिल्ली मीडिया के एक वर्ग द्वारा निर्मित एक ऐसी झूठी कहानी थी कि सचिन पायलट को उनकी मेहनत के लिए 'प्रतिफल ' नहीं मिल रहा था। हमारे समय की ध्रुवीकृत राजनीति और "भारत के विचार" (Idea of India) पर लगातार हो रहे दक्षिणपंथी हमलों के दौर में, एक कांग्रेसी के सामने यह एक अग्निपरीक्षा का समय है, कि वो "भारत के विचार" (Idea of India) व हमारे राष्ट्रवादी पूर्वजों के विचार के प्रति निष्ठा, संगठन के प्रति प्रतिबद्धता,  लोकतंत्र की रक्षा के लिए साम्प्रदायिक व अराजकतावादी ताकतों के विरूध संघर्ष तथा धर्मनिरपेक्ष समाजवादी विचारधारा के प्रति निष्ठापूर्वक दृढ़ संकल्प के लिए प्रतिबद्ध है। इन सभी आदर्शों का पालन करने के लिए दृढ़ निश्चय व कड़ी मेहनत के साथ किसी भी प्रकार की सौदेबाजी नहीं की जा सकती है।  मैं 1992 में NSUI की सदस्य बनी और राजस्थान के एक छोटे से शहर में छात्र संघ अध्यक्ष (1995) के पद पर निर्वाचित हुई। मेरे माता-पिता सिर्फ साधारण सरकारी कर्मचारी थे और कई रिश्तेदारों ने मुझे राजनीति में न जाने की सलाह दी। हालाँकि, पहले एनएसयूआई के समर्थन और फिर भारतीय युवा कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान श्री राहुल गांधी के निर्देशन में, मेरे व्यक्तित्व का कांग्रेस के एक निष्ठावान सिपाही और "भारत के विचार", जिसे भाजपा को नष्ट करने के लिए तुली हुई है, के रक्षक के रूप में  निर्माण व विकास हुआ। मैंने अपने युवा जीवन के 28 वर्ष कांग्रेस संगठन को निष्ठापूर्वक दिए हैं। इस प्रकार से देखा जाये तो मैं सचिन पायलट से 12 वर्ष पूर्व कांग्रेस में शामिल हुई थी। कई अवसरों पर, मैंने विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त की है और अभी भी एक मौका पाने के लिए प्रयासरत हूं। वर्तमान परिस्थिति में लोग कहेंगे कि मैं एक अव्यावहारिक व्यक्ति हूं, जिसने अपने जीवन के 28 साल संगठन को दिए और टिकट के लिए अनदेखी किए जाने पर बाहर नहीं निकली। हालाँकि, मैं कहूँगी  कि मैंने अपनी राजनीति को केवल एक विधायक / सांसद या मुख्यमंत्री के पद तक सीमित नहीं किया है। इसलिए जो लोग पहले क्षण में जहाज से बाहर कूदते हैं, वे हमेशा जहाज में इसीलिए रहते हैं क्योंकि यह उनके लिए एक सुरक्षित स्वर्ग था।


मै कांग्रेस पार्टी के हजारों अन्य कार्यकर्ताओं की तरह हूँ, जिन्हे शायद सबसे युवा सांसद, युवा पीसीसी प्रमुख और राजस्थान के सबसे युवा डिप्टी सीएम बनने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। लेकिन कांग्रेस पार्टी ने कॉलेज, जिला, राज्य स्तर पर मेरी मेहनत को पहचाना और मुझे एनएसयूआई (2003-2005) के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष बनने का मौका दिया, और फिर भारतीय युवा कांग्रेस के महासचिव पद पर पदोन्नत किया (2005-10)। अतः सचिन पायलट को 26 साल की उम्र में जब सांसद का टिकट मिला, तब हम जैसे कार्यकर्ता लगभग एक दशक से NSUI / IYC में अपने कौशल का लाभ दे रहे थे। वर्तमान में, मैं अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की पदाधिकारी हूं।


"युवा तुर्क" के लिए तर्क करने वालों को यह समझना चाहिए कि अशोक गहलोत उत्तर भारत के उन चंद राजनेताओं में से हैं जो मोदी-अमित शाह की जोड़ी का राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कर सकते हैं। मैं यह मात्र इसलिए नहीं कह रही हूं क्योंकि अशोक गहलोत बहुत साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं, या इसलिए कि उनके पास 40 वर्षों का संगठनात्मक कार्य अनुभव है या उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया है, बल्कि यह जनता के बीच उनकी लोकप्रियता उनके लोगों के प्रति प्रेम और स्वच्छ छवि का प्रतिफल है। गुजरात से लेकर कर्नाटक तक उन्होंने मोदी और अमित शाह का मुकाबला किया। वर्तमान में राजस्थान सरकार पर आये राजनीतिक संकट में, जहां बीजेपी ने धन और बाहुबल का इस्तेमाल कर राज्य सरकार को लगभग पछाड़ दिया था, वहां गहलोत का अंगद की भांति दृढ़ता से ठीके रहना, फिर से साबित करता है कि वह राजनीति के जादूगर है और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष ताकतों को उसके सक्रीय साथ की अत्यंत आवश्यकता है।



जहां तक सचिन पायलट के सत्य (सत्य परेशान होने का कारण) के बारे में मेरा कहना है कि एक चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने का आपका हालिया प्रयास केवल भाजपा के "कांग्रेस मुक्त भारत’ के एजेंडे में मदद करने वाला है। ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ क्या है? यह सिर्फ राजस्थान / कर्नाटक / मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस या कांग्रेस सरकार का सफाया करने का प्रयास नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को 'विप्रक्ष-मुक्त भारत' बनाने के लिए एक घृणित षड्यंत्र है। जब श्री राहुल गांधीजी भाजपा के फासीवादी, विभाजनकारी एजेंडे के खिलाफ लगातार लड़ते आ रहे है, ऐसे में वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता उनके विरोधियों को ही मजबूत करती है। एक स्वस्थ, सुव्यवस्थित लोकतंत्र को एक जीवंत, तेज, ईमानदार और सशक्त विपक्ष की आवश्यकता है। राजनीति में, नेताओं और पार्टी के कार्यकर्ताओं की राय में, नीतियों पर बहस और अपनी सरकार के लिए महत्वपूर्ण मतभेद हो सकते हैं। हालांकि, पार्टी संगठनों में इस तरह के मतभेदों को सुलझाने के लिए एक अच्छी तरह से स्थापित तंत्र मौजूद होना चाहिए और केंद्रीय नेतृत्व ने हमेशा बातचीत द्वारा मतभेदों के समाधान को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लेकिन लोकतंत्र में कहीं भी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि कोई एक सार्वजनिक जनादेश को अपमानित करके उसे राजनीति का नाम देने की कोशिश करे। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि सचिन पायलेट ने मेहनत की, परन्तु तथ्य यह भी है कि अशोक गहलोत ने भी नीचे से ऊपर तक सभी पायदानों पर वर्षो पार्टी की सेवा की है, उनके अर्जित अनुभवों तथा शक्ति की कांग्रेस को आज भी आवश्यकता है और आज अधिकांश विधायक उनके नेतृत्व में अपना विश्वास रखते हैं। ऐसे में उनको हटाने की बात अतार्किक ही नहीं अनैतिक भी है। अतः, वे न केवल अपने 'राज धर्म' का पालन कर रहे हैं, बल्कि 'जन धर्म' का भी निर्वहन कर रहे हैं, जो लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनता है। एक विधायक के रूप में सचिन आपका पहला कर्तव्य लोकतंत्र की रक्षा करना, मतभेदों को बढ़ावा देना, चर्चा और बहस को प्रोत्साहित करना है। परन्तु आपने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को अस्थिर करने के प्रयास करके संविधान की नैतिकता का पालन नहीं किया है। क्योंकि  वर्तमान राजनीतिक ध्रुवीकरण के दौर में यह लड़ाई किसी व्यक्ति या मंत्री पद या कांग्रेस पार्टी के बारे में नहीं है। बल्कि यह गांधी के राष्ट्र में लोकतांत्रिक राजनीति की उपजाऊ मिट्टी की रक्षा, संरक्षण और पोषण करने की लड़ाई है।


Published on 19th July Opinion : बिना वजह बगावत ! -

 http://indianlooknews.com/opinion/opinion-rebels-without-reason-article-by-chaynika-uniyal-panda/

A rebel without a cause

 The nail biting contest between Ashok Gehlot and Sachin Pilot now appears like a family feud between a father figure-trying to save Congress government- an impetuous child bent on toppling it’s own house. The ongoing saga has also exposed the modus operandi of how KL media (Khan market+Lutyens) arm twist political leadership. In this context, Ashok Gehlot’s remark -good Hindi-English, good looks- purportedly made against former PCC chief is also a serious indictment of KL media. 

In contrast to KL, the social media post and observations on the Rajasthan political crisis shows how media was clueless about the ground situation and kept on ranting out the false narrative. One such false narrative, manufactured by a section of Delhi media, was that Sachin Pilot was not getting his ‘due’ for his hard work on ground. In polarised politics of our time and right-wing assault on the idea of India, the litmus test for a Congressi is to steadfast loyalty to the idea of India, ideology and idea of our nationalist forefathers, commitment to the organisation, unfettered resolve to fight communalism and unflinching determination to protect democracy. Hard work cannot be traded and substituted for determination to abide by all these ideals. I have joined NSUI in 1992 and got elected to the post of student union President (1995) in a small town of Rajasthan. My parents were just mere public servants and many relatives advised against me joining the politics. However, it was the support of NSUI, first and, then Indian Youth Congress, under the aegis of Shri Rahul Gandhi that encouraged and transformed me into a loyal soldier of Congress and defender of idea of India, an idea that BJP is bent upon destroying.  I have given 28 year of my youth life to Congress organisation. In fact, I joined congress 12 years earlier than Sachin Pilot. On many occasion, I have expressed my desire to contest state election and still trying to get a chance.      Someone will say that I am an impractical person who gave 28 years of my life to organisation and didn’t move out when overlooked for ticket. However, I would say I didn’t reduce my politics to just becoming an MLA/MP or Chief minister’s post.  So those who jump out of the ship at first moment are the ones who was always into the ship because it was a safe heaven. 


I, like thousands of others cadre of Congress party, may not have secured a chance to become youngest MP, young PCC chief, and youngest deputy CM of Rajasthan. But Congress party did recognise my hard work at the college, district, state level and gave me a chance to became all-India Vice-President of NSUI (2003-2005) and, then promoted to the post of national general secretary of Indian Youth Congress for two-terms (2005-10). So Sachin Pilot got an MP ticket in the age of 26, when we were honing our skills at NSUI/IYC for almost an decade. Currently, I am office bearer of All India Mahila Congress. 

Those batting for young ‘Turks’ must understand that Ashok Gehlot is among the few  seasoned politician from North India who can counter Modi-Amit Shah duo, both at state level and national level. I am not saying this because Ashok Gehlot comes  from a very humble family background, or because he have organisational working experience of 40 years or he served as chief minister for 3 times. His popularity among the masses is the product of his love for his people and a clean image.  From Gujarat to Karnataka, he countered Modi and Amit Shah efffctively. The efficient tackling of a present 

crisis, where BJP almost toppled the state government by using money and muscle power, proves again he is the master of politics and progressive-secular forces needs him more at the helm of affair. 

As far as Sachin Pilot’s insinuation about truth( सत्य परेशान हो सकता हैं पराजित नही) is concerned, I must say…


It was Published om 18th July 2020 at https://www.babuaa.com/news/view/11172 

Tuesday, November 11, 2014

Glimps of my book release :)












नाते कि लुगाई का थोग आच्या राखे

हमारे राजस्थान मेँ कहावत है कि नाते कि लुगाई का थोग आच्या राखे वैसा मोदी मंत्रीमंडल विस्तार में देखने को मिला सुरेश प्रभु शिवसेना से 20 साल पुराना रिश्ता तोङ भाजपा मेँ नाते आये , चौधरी बीरेंद्र सिँह 42 साल काँगेस मेँ रहे दो माह पहले भाजपा मेँ नाते आये , राज्यवर्ध्दन सिँह सेना मेँ थे चुनाव से पहले भाजपा मेँ नाते आये , रामकृपाल 34 साल लालू की राजद संग रहे चुनाव के दौरान भाजपा मेँ नाते आए और मोदी जी ने इन सब को मंत्री बनाकर राजस्थान की कहावत को सार्थक किया

A Lady's Simple Questions & Surely It Will Touch A Man's heart...

Note: Don't personliz it please.
लोग पत्नी का मजाक उड़ाते है। बीवी के
नाम पर कई msg भेजते है उन सभी के लीये
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देह मेरी ,
हल्दी तुम्हारे नाम की ।
हथेली मेरी ,
मेहंदी तुम्हारे नाम की ।
सिर मेरा ,
चुनरी तुम्हारे नाम की ।
मांग मेरी ,
सिन्दूर तुम्हारे नाम का ।
माथा मेरा ,
बिंदिया तुम्हारे नाम की ।
नाक मेरी ,
नथनी तुम्हारे नाम की ।
गला मेरा ,
मंगलसूत्र तुम्हारे नाम का ।
कलाई मेरी ,
चूड़ियाँ तुम्हारे नाम की ।
पाँव मेरे ,
महावर तुम्हारे नाम की ।
उंगलियाँ मेरी ,
बिछुए तुम्हारे नाम के ।
बड़ों की चरण-वंदना
मै करूँ ,
और 'सदा-सुहागन' का आशीष
तुम्हारे नाम का ।
और तो और -
करवाचौथ/बड़मावस के व्रत भी
तुम्हारे नाम के ।
यहाँ तक कि
कोख मेरी/ खून मेरा/ दूध मेरा,
और बच्चा ?
बच्चा तुम्हारे नाम का ।
घर के दरवाज़े पर लगी
'नेम-प्लेट' तुम्हारे नाम की ।
और तो और -
मेरे अपने नाम के सम्मुख
लिखा गोत्र भी मेरा नहीं,
तुम्हारे नाम का ।
सब कुछ तो
तुम्हारे नाम का...
Namrata se puchti hu?
आखिर तुम्हारे पास...
क्या है मेरे नाम का?
एक लड़की ससुराल चली गई।
कल की लड़की आज बहु बन गई.
कल तक मौज करती लड़की,
अब ससुराल की सेवा करना सीख गई.
कल तक तो टीशर्ट और जीन्स पहनती लड़की,
आज साड़ी पहनना सीख गई.
पिहर में जैसे बहती नदी,
आज ससुराल की नीर बन गई.
रोज मजे से पैसे खर्च करती लड़की,
आज साग-सब्जी का भाव करना सीख गई.
कल तक FULL SPEED स्कुटी चलाती लड़की,
आज BIKE के पीछे बैठना सीख गई.
कल तक तो तीन वक्त पूरा खाना खाती लड़की,
आज ससुराल में तीन वक्त
का खाना बनाना सीख गई.
हमेशा जिद करती लड़की,
आज पति को पूछना सीख गई.
कल तक तो मम्मी से काम करवाती लड़की,
आज सासुमां के काम करना सीख गई.
कल तक भाई-बहन के साथ
झगड़ा करती लड़की,
आज ननद का मान करना सीख गई.
कल तक तो भाभी के साथ मजाक करती लड़की,
आज जेठानी का आदर करना सीख गई.
पिता की आँख का पानी,
ससुर के ग्लास का पानी बन गई.
फिर लोग कहते हैं कि बेटी ससुराल जाना सीख
गई.
Salute to all girls. :)

Friday, March 21, 2014

आज मेरी किताब "भगतसिंह: व्यक्तित्व, विचारधारा और प्रासंगिकता" आज प्रकाशित हो गयी। इच्छुक पाठक किताब खरीदने हेतु स्वराज प्रकाशन में अजय मिश्राजी से इन नम्बर पर सम्पर्क करें। 011-23289915 & 09968629836


Friday, January 4, 2013

फिर न कहना मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई बोलता नहीं है।


मुसलमानों का मोदी बनने का प्रयास कर रहे ओबैसी के खिलाफ मोर्चा खोला शबनम हाशमी ने


मुसलमानों का मोदी बनने का प्रयास कर रहे ओवैसी के खिलाफ मोर्चा खोला शबनम हाशमी ने
ऩई दिल्ली। गुजरात के नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा लेती रहीं सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने मुसलमानों के मोदी बनने का प्रयास करने वाले इत्तेहादुल मुसलमीन के विधायक अकबरउद्दीन ओवैसी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। अकबरउद्दीन ओवैसी पर आरोप है कि अदिलाबाद जिले के निर्मल टाउन में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने काफी भड़काऊ बयान दिये। उनका बयान यू ट्यूब पर भी मौजूद है जो सोशल साइट्स पर वायरस की तरह फैल रहा है।
ऩई दिल्ली के पार्लियामेन्ट स्ट्रीट के डीसीपी को प्रेषित अपनी शिकायत में शबनम हाशमी ने लिखा है कि एमआईएम के आंध्र प्रदेश विधान सभा के सदस्य श्री अकबरुद्दीन ओवैसी द्वारा 24 दिसंबर, 2012 को आंध्र प्रदेश के निर्मल शहर में बेहद भड़काऊ भाषण दिया गया था। पूरा भाषण बेहद आपत्तिजनक है, हिंदू धर्म के खिलाफ भड़काऊ और हमारी सांस्कृतिक विरासत के खिलाफ है। यह हमारे संवैधानिक मूल्यों, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर एक तगड़ा हमला है। ऐसे अप्रिय भाषण समाज को विभाजित करते हैं, शांति भंग करते हैं और सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।
शबनम हाशमी ने ओबैसी के खिलाफ आईजीसी की धारा 153ए के तहत मुकदमा दर्ज करने की माँग की है। शबनम हाशमी का पूरा पत्र इस प्रकार है–
SHABNAM HASHMI
23, CANNING LANE, NEW DELHI-110001
EMAIL: shabnamhashmi@gmail.com
January 2, 2013
DCP PARLIAMENT STREET
PARLIAMENT STREET POLICE STATION
NEW DELHI
SUB: REGISTRATION OF CASE UNDER Section 153A
Dear Sir,
I am writing to you to draw your attention to the speech of Mr Akbaruddin Owaisi, given a few days ago. The speech is available on you tube and is being circulated on the facebook extensively.
This highly inflammatory speech made by Mr. Akbaruddin Owaisi of MIM and member of the Andhra Pradesh Legislative Assembly was delivered on December 24, 2012 in Nirmal town of Andhra Pradesh.
The whole speech is highly objectionable, inflammatory against the Hindu religion and against our cultural heritage. It is a strong attack on the values of our constitution, democracy and secular values. Such obnoxious speeches divide society, vitiate peace and lead to conflicts and riots.
I request you to immediately register a case against Mr Akbarudddin Owaisi under section 153 A of the IPC. I request you to take exemplary action in this very serious matter to ensure that such intolerable acts are never repeated again, anywhere by anyone and secure peace and harmony in the country.
This speech falls under this section as it has clearly causing enmity between different groups on grounds of religion and is causing a threat to communal harmony.
Yours sincerely
Shabnam Hashmi
———————————-
Indian Penal Code (IPC)
Section 153A. Promoting enmity between different groups on grounds of religion, race, place of birth, residence, language, etc., and doing acts prejudicial to maintenance of harmony
1[153A. Promoting enmity between different groups on grounds of religion, race, place of birth, residence, language, etc., and doing acts prejudicial to maintenance of harmony.—(1) Whoever—
(a) By words, either spoken or written, or by signs or by visible representations or otherwise, promotes or attempts to promote, on grounds of religion, race, place or birth, residence, language, caste or community or any other ground whatsoever, disharmony or feelings of enmity, hatred or ill-will between different religious, racial, language or regional groups or castes or communities, or
(b) Commits any act which is prejudicial to the maintenance of harmony between different religious, racial, language or regional groups or castes or communities, and which disturbs or is likely to disturb the public tranquility, 2[or]
2[(c) Organizes any exercise, movement, drill or other similar activity intending that the participants in such activity shall use or be trained to use criminal force or violence of knowing it to be likely that the participants in such activity will use or be trained to use criminal force or violence, or participates in such activity intending to use or be trained to use criminal force or violence or knowing it to be likely that the participants in such activity will use or be trained to use criminal force or violence, against any religious, racial, language or regional group or caste or community and such activity for any reason whatsoever causes or is likely to cause fear or alarm or a feeling of insecurity amongst members of such religious, racial, language or regional group or caste or community,]
Shall be punished with imprisonment which may extend to three years, or with fine, or with both.
Offence committed in place of worship, etc.— (2) Whoever commits an offence specified in sub-section (1) in any place of worship or in any assembly engaged in the performance of religious worship or religious ceremonies, shall be punished with imprisonment which may extend to five years and shall also be liable to fine.]
CLASSIFICATION OF OFFENCE
Para I
Punishment—Imprisonment for 3 years, or fine, or both—Cognizable—Non-bailable—Triable by any Magistrate of the first class—Non-compoundable.
Para II
Punishment—Imprisonment for 5 years and fine—Cognizable—Non-bailable—Triable by Magistrate of the first class—Non-compoundable. 

आखिर क्यूँ?


28 दिसंबर कांग्रेस स्थापना दिवस पर रामलीला मैदान, जयपुर में "संकल्प रैली एवं विशाल जन सभा' का आयोजन किया गया, कार्यक्रम सफलता पूर्वक संपन्न हुआ।परन्तु दिन भर के व्यस्तता के बाद जब टी वी खोल तो बड़ी दुखद खबर का सामना हुआ- दिल्ली गैंग रेप पीड़ित लड़की की हालत बेहद नाजुक, कई अंगों ने काम करना बंद किया :-( दिल से एक ही प्रार्थना निकली कि ईश्वर उसे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान करे तथा एक सामान्य जीवन जीने का एक और मौका दे। परन्तु आख़िरकार जीवन और मृत्यु के बीच का संघर्ष समाप्त हुआ, आखिरकार जिंदगी हारी। पीडिता ने देर रात 29 दिसम्बर को अंतिम साँस ली। शोक, क्षोभ, पीड़ा, क्रोध ये सभी भाव एक साथ मन में जाग उठे :( दिल से एक ही प्रार्थना निकली - "हे भगवान इस दुनियां में तो उसे दर्द, पीड़ा और यातना मिली, परन्तु उसे आप अपने आपर स्नेह से सकून व शांति प्रदान करना। उसके प्रियजनों को इस दुःख की घडी में संबल देना।" आज ये सोच के और तकलीफ होती है की 2000 से 2005 तक पी एच डी के कार्य के लिए तीन मूर्ति व् राष्ट्रिय अभिलेखागार जाने हेतु, NSUI व युवा कांग्रेस में राष्ट्रिय पदाधिकारी रहते हुए कार्यालय जाने हेतु दिल्ली की बसों की सवारी मैंने भी बहुत की थी, रात में इनमे यात्रा तब भी सुरक्षित नहीं थी आज भी नहीं है। परन्तु मै शायद भाग्यशाली थी।
इस घटना ने सबको हिल कर रख दिया नए कठोर कानून की मांग जोर शोर से उठाई जा रही है। परन्तु मेरी व्यक्तिगत रे तो यह कि सिर्फ नया कानुन बना देने से समस्या का समाधान नहीं होगा, कानुन लागु भी होना चाहिए। अपराध की सजा तुरन्त मिलनी चाहिए। महिलाओं के प्रति समाज में पुरुषों की सोच बदलनी चाहिए, नेता और पुलिस इसी समाज में से ही आते है। परन्तु अफसोस तब होता है जब मै पुरुषों की सोच बदलने की बात फेसबुक पर करती हूँ बहुत लोग इस बात को सिरे से नकार देते है कि किसी बदलाव की आवश्यकता भी है, ऐसे में बदलाव बहुत दूर नजर आता है। आखिर 100 करोड़ से अधिक की आबादी में कुछ हजार हाथों में कैंडल से सामाजिक बदलाव नहीं आएगा, बदलाव के लिए करोड़ों हाथों के उठाने की जरुरत पड़ेगी। आखिर सबकुछ सिखाया जा सकता है, परन्तु दुसरे की भावनाओं की कद्र करना किसी को कैसे सिखाया जा सकता है? आखिर ये तो महसूस करने की बात है, ना कि सिखाने की।  

अब देखिये मध्य प्रदेश के एक मंत्री का बयान आया " लक्ष्मण रेखा न लांघे, वरना हरण तो  ही।" मतलब सीता हरण में कसूर सीता का था रावण का नहीं? वाह री दोहरी मानसिकता और दोहरे मापदंड! जिस धर्म में अर्धनारीश्वर की कल्पना हो, उस समाज में लक्ष्मण रेखा सिर्फ महिलाओं के लिए ही क्यूँ? क्या पुरुषों के लिए कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होनी चाहिए? भगवान आपसे से एक प्रार्थना है, इस देश में जितने भी पुरुष इस तरह की दोहरी मानसिकता वाले है उन्हें अगले जन्म में महिला बना के पैदा करें और उन्हें इस जन्म की सोच और कर्म याद रहें। आपके लिए भी ये देखना रोचक होगा की उनकी सोच वही रहती है या बदलती है :) अफ़सोस आज हर कोई महिलाओं की मर्यादा, महिमा, उनको पूजे जाने के बारे में बात कर रहा है। परन्तु कोई भी उनकी आजादी, अधिकार और बराबरी की चर्चा तक नहीं करता। आखिर क्यूँ?