Wednesday, September 30, 2020

प्रगति के विपरीत : राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020)

1903 में, भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय आयोग की सिफारिश के बाद एक नया विश्वविद्यालय विधेयक पेश किया। विधेयक पर टिप्पणी करते हुए, महान राष्ट्रवादी पंडित मदन मोहन मालवीय ने कहा, "विश्वविद्यालय आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश के अनुरूप विश्वविद्यालय विधेयक, यदि कानून में पारित हो जाता हैं, तो  शिक्षा के क्षेत्र को प्रतिबंधित करने और विश्वविद्यालय की स्वायत्ता को पूरी तरह से नष्ट करने का कार्य करेगा, जिन पर काफी हद तक उनकी दक्षता और उपयोगिता निर्भर करती है, और यह उन्हें व्यावहारिक रूप से सरकारी विभागों में बदल देगा।" जहाँ विश्वविद्यालय विधेयक का उद्देश्य देश में उच्च शिक्षा के स्तर में सुधार करना होता है, वहीं समालोचना से पता चलता है कि किस तरह यह बिल एक सारहीन तथा बिना दूरदृष्टि के तैयार किया गया था। उपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किये गए विश्वविद्यालय विधेयक के 100 से अधिक वर्षों के बाद, भाजपा शासित भारत सरकार ने उसी उपनिवेशिक समान्तर सोच के साथ और भारत में शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय शैक्षिक नीति (2020) पारित की है।



एनईपी के सभी प्रावधानों में से, सबसे विनाशकारी और घातक विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए एक एकल नियामक के रूप में उच्च शिक्षा आयोग की शुरूआत है। अब तक, विभिन्न विश्वविद्यालयों, चाहे सार्वजनिक वित्त पोषित हों या निजी, उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के नियंत्रण में रखा गया था। इसी तरह, सभी तकनीकी संस्थान अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) के नियामक प्राधिकरण के अंतर्गत आते हैं। ये दोनों संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) का हिस्सा थे; और इसका मुख्य उद्देश्य भारत में उच्च शिक्षा को विनियमित करना था। यूजीसी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों को धन मुहैया कराता है; तथा इसने सदैव विभिन्न संस्थानों की संबद्धता के विषय में दृष्टि रखी; पाठ्यक्रम में एकरूपता होने के लिए दिशानिर्देश जारी किये; और विश्वविद्यालय प्रशासन, शिक्षक संघ, छात्रों और विभिन्न हितधारकों के बीच संघर्ष में मुख्य मध्यस्थ के रूप में काम किया। एनईपी के तहत, यूजीसी और एआईसीटीई दोनों को समाप्त कर दिया गया है और इनके स्थान पर उच्च शिक्षा आयोग (HEC ) को स्थापित किया गया है। हालाँकि सुधार की पक्षधर लॉबी ने एक स्वागत योग्य कदम के रूप में इसकी सराहना की है, परंतु यदि इसे लागु किया जाता है तो इस आयोग के साथ दो बुनियादी समस्याएँ हैं। सबसे पहले, यूजीसी और एआईसीटीई पहले से ही लाखों उच्च शिक्षा संस्थानों (कॉलेजों, राज्य के विश्वविद्यालयों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, अनुसंधान संस्थानों, नीति-थिंक टैंकों इत्यादि) की देखरेख की भारी जिम्मेदारी के साथ बोझिल रहे हैं। प्रतिनिधित्व/ विकेन्द्रीकरण के बिना एक अपरिपक़्व भारतीय शिक्षा प्रणाली, भारत में उच्च शिक्षा के इसी कुप्रबंधन का प्रमुख कारण है। इन दोनों नियामकों के सम्मुख  मुख्य समस्या- नकली, डीम्ड विश्वविद्यालयों, संबद्धताओं के बिना संस्थानों और खुले बाजार में डिग्री बेचने वाले विश्वविद्यालयों का उत्कर्ष है। इस संदर्भ में, एक प्रश्न पूछना चाहिए: जब दो नियामक संकट का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं थे, तो एक केंद्रीकृत आयोग लाने से इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? वास्तव में, एचईसी जैसे एक नियामक के तहत अधिकारों का केंद्रीकरण केवल कुप्रबंधन की मौजूदा समस्या को और अधिक बढ़ा देगा।



एचईसी के साथ दूसरी मूलभूत समस्या उसकी वर्गीकृत स्वायत्ता (Graded Autonomy) की अवधारणा है। एनईपी में उल्लिखित एचईसी के लिए जनादेश अगले 5-10 वर्षों तक सभी उच्च शिक्षा संस्थान को वर्गीकृत स्वायत्तता  (Graded Autonomy) प्रदान करना है। वास्तव में, शिक्षा प्रणाली में विभिन्न हितधारक (stakeholders) सरकार के फरमान से स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं। संस्थागत स्वायत्तता और दैनिक कार्यों में  अनावश्यक सरकारी नियंत्रण, सरकारी संस्थानों में नियुक्ति और पदोन्नति में राजनीतिक पक्षपात, आधुनिक पाठ्यक्रम को पढ़ाने की स्वतंत्रता पर अंकुश और नौकरशाही के हस्तक्षेप इत्यादि आज बहस का मुद्दा है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि NEP सरकार की तरफ से शिक्षण संस्थानों पर अपनी पकड़ ढीली करने का सकारात्मक प्रयास है। बहरहाल, मामला यह नहीं है। एनईपी के माध्यम से, भाजपा सरकार ने जो पेशकश की है, वह राज्य अथवा राजनीति से शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता देने का नहीं; वरन उन्हें वित्तीय स्वायत्तता / स्व-वित्तपोषण के घातक प्रावधान की ओर धकेलने का षड्यंत्र है। लगभग तीन दशकों से, भारतीय संस्थान धन की कमी, शिक्षक-छात्र अनुपात में गिरावट, बुनियादी ढांचे के उन्नयन में विफलता और चुनौतियों का सामना करने के कारण बीमारु स्तिथि में हैं। इस तरह के समय में, स्व-वित्तपोषित या वित्तीय स्वायत्तता का प्रावधान सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थानों के भविष्य को मृत्युशैया पर डालने की कुचेष्टा है। यह सार्वजनिक शिक्षा का निजीकरण करने और इसे एक लाभदायक व्यवसाय उद्यम में बदलने का एक स्पष्ट प्रयास है। जब भी इसे लागू किया जायेगा, तो यह लाखों सामजिक व आर्थिक रूप से हाशिये पर आने वाले छात्रों को शिक्षा से बाहर कर दिये जाने का प्रमुख कारण बनेगा। इस योजना में, JNU / DU / HCU / TISS / AUD / JU जैसे प्रमुख सार्वजनिक विश्वविद्यालय बिना किसी वित्तीय सहायता व पोषण के समाप्त हो जाएंगे, जबकि निजी विश्वविद्यालय पनपेंगे। इससे न केवल सामाजिक असमानताएं पैदा होंगी और सीखने पर असर पड़ेगा, बल्कि इससे गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों पर अतिरिक्त वित्तीय दबाव भी पड़ेगा। वह दिन दूर नहीं जब कुकुरमुत्तों की भांति खुलने वाले निजी विश्वविद्यालय शैक्षिक डिग्री बेचने वाला मछली बाजार बन जाएगें।



जैसा कि राष्ट्रीय मीडिया में बताया गया है, एनईपी आरएसएस के एजेंडे का एक हिस्सा है, जो अपने अंधराष्ट्रवादी सांस्कृतिक एजेंडे को लागू करने और मजबूत करने के लिए प्रयासरत है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को लागू करना एक ऐसा ही प्रावधान है। यदि भाषा के मापदंड को हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के लिए लाया जाता है, तो उन्हें हर स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह तर्क देने के लिए कि अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी या क्षेत्रीय भाषा को लाया जाना चाहिए, उन्हें बढ़ावा देने के लिए एक अच्छी रणनीति नहीं है। भारत में कई दशकों से हिंदी का बिगुल बजता रहा है। हालांकि, इसे बढ़ावा देने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं। उदाहरण के लिए, SC और HC दोनों में, हिंदी में कार्यवाही भरने के लिए कोई जगह नहीं है। अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थान विशेष रूप से अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा देते हैं। सभी नौकरशाही और सरकारी आधिकारिक पत्राचार का माध्यम भी अंग्रेजी में ही होता हैं। क्या सरकार इस सबको बदलने जा रही है? उदाहरण के लिए चीन, रूस, तुर्की, फ्रेंच आदि देश सभी अपनी मातृभाषा में अपने सभी आधिकारिक और नौकरशाही कार्यों का संचालन करते हैं। वहां की सड़कों पर साइनबोर्ड और यहाँ तक कि उनके अंतरिक्ष स्टेशन के निर्देश तक मातृभाषा में ही लिखे होते हैं। इस प्रकार, यदि कोई हिंदी और क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के बारे में गंभीर है, तो राज्य को क्षेत्रीय / राष्ट्रीय भाषा के प्रति आम जनता के पूरे ढांचे और दृष्टिकोण को बदलने में गंभीर निवेश करने की आवश्यकता है। हमें न सिर्फ हिंदी व क्षेत्रीय भाषा में मूल लेखन को बढ़ावा देना होगा बल्कि साथ ही क्लासिक अंग्रेजी लेखन का भी अनुवाद करना होगा।



वर्त्तमान में जिस प्रकार अंग्रेजी राष्ट्र के रोजमर्रा के जीवन पर हावी है, हिंदी को बढ़ावा देने का वादा सिर्फ एक खोखला कार्य प्रतीत होता है। अगर बीजेपी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए वास्तव में गंभीर है, तो उन्हें इसे दैनिक, सामान्य लेनदेन की भाषा के रूप में अपनाना चाहिए। चूँकि अनिवार्य रूप से हिंदी/मातृभाषा का प्रावधान केवल सरकारी वित्त पोषित स्कूल पर लागू होगा, यह एक और वर्ग विभाजन पैदा करेगा। जिस तरह प्राचीन शिक्षा प्रणाली जाति आधारित आरक्षण पर आधारित थी, एनईपी इसे वर्ग के आधार पर आरक्षण से बदल देगा। अमीर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम, जो वैश्विक प्रतियोगिता की भाषा है, के निजी स्कूल में पढ़ाएंगे और सरकारी स्कूल में गरीब बच्चों को हिंदी भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जाएगा। अत:भाजपा सरकार को मात्र अपना राजनीतिक एजेंडा थोपने के बजाय इस मामले को गंभीरता से देखना चाहिए।



अंत में, गांधीजी ने एक बार कहा था, "जो आम जनता के साथ साझा नहीं किया जा सकता है, वो मेरे लिए वर्जित है।" अतः हम उस प्रणाली को स्वीकार नहीं कर सकते हैं जिसमें आप विशेष वर्ग के बच्चों लिए कांच के घर उपलब्ध करते हैं और 90% स्कूली बच्चों के लिए पेंसिल और स्लेट नहीं हैं। इस प्रकार, नई शिक्षा नीति विभिन्न विचारों और धारणाओं के लिए स्थान को नियंत्रित करने की कोशिश मात्र है।


Published 2 August 2020 आलेख : प्रगति के विपरीत राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 - डॉ. चयनिका उनियाल -

 http://indianlooknews.com/opinion/national-education-policy-2020-opinion-by-chaynika-uniyal/